Monday, February 6, 2012

लोसर स्तोद में नववर्ष का त्यौहार

गत वर्ष लोसर पर गांव जाना चाहता था। भारी बर्फबारी के चलते केलंग से जा ही नहीं पाया। इस वर्ष बर्फ भी कम और मौसम भी अनुकूल रहा। केलंग गणतंत्र दिवस समारोह के बाद गांव चला गया। टैक्सी नियमित चलती है। बर्फ पड़ भी जाए तो ग्रेफ की मशीनरी बर्फ हटाने में जुट जाती है। ऐसे में मेरे गांव की ओर वाहन की दिक्कत नहीं है। लोसर से पूर्व घर में वार्षिक पूजा होती है। तिब्बती, लद्दाखी व खंपा भी नववर्ष का त्यौहार लोसर मनाते हैं लेकिन मनाने का समय अलग-अलग रहता है।

27 जनवरी को सुबह उठा। कुल देवता की पूजा अर्चना हुई। वार्षिक पूजा के लिए तैयारी आरंभ हो गई। जनजातीय क्षेत्र लाहुल के स्तोद में लोसर पर्व से पूर्व हर वर्ष यह प्रक्रिया होती है। गांव का ही एक व्यक्ति नियमित पूरे गांव के घरों में पूजा की विधि पूरा करता है। हमारे घर में कुल देवता के अतिरिक्त सात अन्य देवी-देवताओं को पूजा जाता है। घर के छत पर यह प्रक्रिया पूरी होती है। बौद्ध बहुल क्षेत्र में देवताओं से अधिक धर्म महत्वपूर्ण है, बाबजूद इसके साल में दो बार ऐसी पूजाएं हमारी जड़े कहीं और होने का संकेत देती हैं।


वार्षिक पूजा के लिए सत्तू के दो लिंगाकार टोटू बनते हैं, जिसे डंगे कहते हैं। डंगे के ऊपर मक्खन के मारकेनची बकरे रखे जाते हैं। डंगे व मारकेनची देवता तंगजर व यूलसा सोनापू को अर्पित करते हैं। आटे से दो त्रिकोण आकार के टोटू जिसे पिया कहते हैं फैला हला, फैला लारंग व गन ला को तथा काठू के आटे का पिया चची को अर्पित होता है। घेपन के लिए मक्खन का बकरा बनता है।  पवित्र देवदार के पत्तियों का  धूप व एक जग छंग छत्त पर ले जाते हैं। धर्म की प्रधानता ने अन्य पूजाओं को गौण कर दिया है।

पूजा में हर देव को पूजते हुए घर में सुख-समृद्धि, धन-धान्य, पालतू पशुओं की रक्षा व वृद्धि की कामना होती है। हर देव के लिए देवदार की टहनियों में सफेद कपड़ा लगा कर छत में क्रमबद्ध लगाया जाता है। पूजा के बाद धर्म के मुताबिक पवित्र झंडे लगाए जाते हैं। कुल देवता को भी सफेद कपड़ा अर्पित किया जाता है। इस पूरे क्रम को निपटा कर मैं वापस केलंग लौट आया। वार्षिक पूजा में पिछले वर्ष भी गया था।

2 फरवरी को मैं अपने परिवार के साथ लोसर के गांव के लिए चल पड़ा। मौसम अनुकूल था। घर में पूरी तैयारी में जुट गया। वर्षों बाद लोसर मनाने पहुंचा था। पहली बार तब जब मैं कक्षा चार में पढ़ता था। उसके बाद कभी गांव लोसर के दौरान नहीं पहुंच पाया था। कुछ धुंधली सी यादें थी। मेरी पत्नी पहली बार लोसर के आयोजन को देख रही थी।

3 फरवरी को सुबह चाचाजी ने आटे के 7 फोचे बनाए। फोचे तैयार होने के बाद हालड़ा फाडऩे की तैयारी थी। मेरे एक चाचा जी का पिछले वर्ष निधन हुआ था। ऐसे में हमारे घर में इस वर्ष गांव के लोग ही हालड़ा की तैयारी करते हैं। शोकग्रस्त परिवार को लोसर के दिन फूल देने की परंपरा होती है, ताकि वो अपना शोक तोड़ सके। लोसर नववर्ष की शुरूआत होती है। इस दिन के बाद शोक नहीं किया जाता।

हालड़ा फाडऩे से पूर्व बरराजा संभवत: बलिराजा को स्थापित करने के लिए बाकायदा शराब के साथ पूजा होती है। आटे के साथ दीवार पर आकृति बनती है। बीच में खतग व फूल लगता है। घी या मक्खन के टीके लगाए जाते हैं। उसी के साथ आटे के फोचे रखे जाते हैं। बरराजा स्थापित होने के बाद उस आसन पर कोई नहीं बैठता। माना जाता है कि बरराजा खुद वहां बैठते हैं। हर रोज कुछ भी ग्रहण करने से पूर्व बरराजा को अर्पित किया जाता है। फिर हालड़ा की लकड़ी फाडऩे से पूर्व पूजा होती है व फिर घर में जितने पुरूष सदस्य होते हैं उतने हालड़ा बनाए जाते हैं।

हालड़ा के साथ गलफा भी तैयार होता है। जो बरराजा के आसन के साथ रख दिया जाता है। शाम होते ही पूरे गांव के लोग पहुंचते हैं। पारंपरिक गीतों का गायन होता है। गांव के लोग शोकग्रस्त परिवार के सदस्यों को फूल देकर व छंग पिला कर शोक खत्म करने का आग्रह करते हैं। उसके बाद गलफा फैंकने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। गलफा का मशाल पूरे वर्ष में घर में अशुभ, अनहोनी या बुरे ग्रहों के प्रभाव को टालने की कोशिश होती है। गलफा का मशाल फैंकते ही गांव के दूसरे घर की और प्रस्थान करते हैं। गलफा का मशाल हर घर में फैंकते हैं। ग्रामीण एक घर से दूसरे घर होते हुए गांव के हर घर तक पहुंचते हैं।

हालांकि हालड़ा फैंकने का समय रात दस बजे था। लेकिन घर-घर में गलफा फैंकते हुए सुबह के तीन बज चुके थे। सवा तीन बजे के करीब हालड़ा फैंक सके। ऐसा हर वर्ष होता है लोग तय समय में हालडा नहीं फैंक पाते। हालड़ा फैंकते ही घर के तमाम दरवाजों व खिड़कियों में आटे के दिये जलाए जाते हैं। हालड़ा फैंकने वाले घर आते हुए बर्फ लेकर आते हैं जिसे पानी के बर्तन में डाल दिया जाता है। सुबह जल्दी जाकर नल में घी का टीका लगा कर महिलाएं पानी लाती हैं। पूरे दिन घर से बाहर नहीं निकलते। मौसम अनुकूल नहीं था इसलिए चार फरवरी के शाम को केलंग आ गया। लोसर के तीसरे दिन सुबह जल्दी घर के छते पर जाकर देवी-देवताओं को पूजा जाता है तथा उसके बाद पूरे दिन छत पर नहीं चढ़ा जाता। सात दिन तक लोसर मनाया जाता है। लोसर की शुभकामनाएं देते हुए मुझे खुशी है कि एक और आयोजन को मैं ब्लॉग के माध्यम से सहज सका हूं।

3 comments:

आर. अनुराधा said...

अजय जी, पूरा ब्यौरा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। आपका इलाका इतना ठंडा, मौसम के लिहाज से कठिन होने के बाद भी खूब गहमागहमा भरा और दिलचस्प है। सबसे बड़ी बात यह कि आपने इस महत्वपूर्ण त्योहार का ब्योरा सबके साथ साझा किया। ऐसे ही अपनी ब्लॉग-डायरी भरते रहिए। एक दिन इसकी किताब भी बन जाएगी और आपके इलाके की संस्कृति को लोग करीब से जान पाएंगे।
अगली पोस्ट का इंतजार।

Rahul Singh said...

भाषा और प्रस्‍तुति से एकदम नये में भी अपनापन महसूस हुआ.

अजेय said...

bahut sundar.