Monday, March 8, 2010

गोच़ी- पुत्र उत्सव







जिला मुख्यालय केलंग सहित लाहुल के चार पंचायतों के दो दर्जन से अधिक गांव गाहर घाटी के तहत आते हैं। भागा नदी के आर-पार बसी आबादी की अलग बोली, अलग संस्कृति है। चार पंचायतों में नौ गोंपा बने हैं। इन मठों में कारदंग व शाशुर गोंपा की मान्यता सर्वाधिक है। लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं बावजूद इसके कई आयोजन ऐसे हैं जिनका बौद्ध धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन आयोजनों से झलकता है कि बौद्ध धर्म इस इलाके में बहुत बाद में आया है। ऐसे आयोजनों से इस जनजाति की जड़ें सहज ही अन्यत्र होने का संकेत दे देती है। बर्फ की झक सफेद चादर वाले वातावरण में रंगीन पोशाकों में सजे-धजे ग्रामीण अलग ही तरह का इंद्रधनुषी अहसास से भर देते हैं। पुत्र पैदा होने की खुशी व ग्रामदेवता का आभार व्यक्त करता त्यौहार इस घाटी की अलग पहचान है। मान्यता है कि ग्राम देवता के आशिर्वाद से परिवार में हुए लड़के का जन्म पूरे समुदाय को मजबूती देने के लिए हुआ है। लड़की के जन्म पर इस प्रकार का आयोजन नहीं होता। उत्सव मुख्यत: पुत्र के जन्म पर उल्लास,आभार व खुशी को बांटने से जुड़ा है। शक्तिशाली लोकदेवता व ग्राम देवता वाले गांवों में हर वर्ष अनिवार्य तौर पर इस उत्सव का आयोजन होता है। गांव में लड़के का जन्म न हो तो भी ग्राम देवता के सम्मान में कुछ गांवों में आयोजन ग्रामीण मिल कर करते हैं। उन गांवों में प्यूकर, कारदंग, सतींगरी, रांग (अप्पर) केलंग, यो (लोअर) केलंग व बिलिंग ऐसे गांव हैं जहां हर वर्ष आयोजन होता है। पुत्र का जन्म हो तो संबंधित परिवार अन्यथा ग्रामीण मिलकर आयोजन में होने वाले खर्च को वहन करते हैं। कुछ गांवों में पुत्र जन्म न होने पर आयोजन स्थगित कर दिया जाता है। केलंग व कारदंग में गोच़ी का आयोजन देख चुका हूं। यह बात रोचक है कि पूरे इलाके की एक बोली होने के बावजूद आयोजन की विधि थोड़ी बहुत बदल जाती है। कारदंग में भोजपत्र पर कालिख से याक बनाया जाता है जबकि केलंग में खुलच़ी (मेमने की खाल में भूसा भर कर) उस पर तीरंदाजी की जाती है। 




                      गोची के लिए तैयारी  


केलंग व कारंदग गोची अपने ब्लाग में सहजने का प्रयास कर रहा हूं। वर्ष के भीतर (एक आयोजन से दूसरे आयोजन तक) जन्म लेने वाले लड़के के जन्म पर ग्राम देवता का आभार व्यक्त करने का चलन है व इसी त्यौहार को गोची कहा जाता है। हर वर्ष इसका आयोजन होता है। गांव में किसी वर्ष कोई लड़का जन्म न ले तो ग्रामीण सामूहिक तौर पर ग्राम देवता के प्रागंण में इस आयोजन की औपचारिकता पूरी करते हैं। कभी वर्ष भर में पांच परिवारों में लड़के का जन्म हो तो आयोजन पांच घरों में चलता है। इसी प्रकार एक ही परिवार में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई हो तो आयोजन एक ही घर में चलता है। संबंधित परिवार के रिश्तेदार व ग्रामीण आयोजन में शिरकत करते हैं। रांग केलंग में कुकुजी परिवार को लबदक (पुजारी) परिवार माना जाता है। आयोजन की शुरूआत उस घर से होती है जिस घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है, वहां ग्रामीण इकत्रित होते हैं व ग्रेक्स (पारंपरिक गीत) का गायन करते हुए गोची की औपचारिक शुरूआत करते हैं। गोच़ी की पूर्व रात्रि पर लोअर केलंग का थास परिवार जोकि संबंधित ग्राम देवता के लबदक हैं नगाड़े के साथ अप्पर केलंग पहुंचता है तथा अप्पर केलंग का थमस परिवार हालडा बना कर उस दल का स्वागत करते हुए अप्पर केलंग के ग्राम देवता के परिसर तक ले जाता है। दोनों ही ग्रामों के ग्रामीण पूजा अर्चना के बाद अपने-अपने देवताओं के प्रतीक चिन्ह (रंगीन या सफेद कपड़े का टुकड़ा) बदलते हैं। इसी के साथ लोअर केलंग का दल वापस चला जाता है। इसी के साथ गोच़ी की औपचारिक शुरूआत होती है। अप्पर केलंग के ग्रामीण किसी एक युवा को लाऊपा का दायित्व देते हैं। 
लाऊपा का काम कनिसका (देव प्रागंण) में रात भर आग जलाकर रहने का होता है तथा पूरी रात आग को बुझने नहीं दिया जाता। इस बीच लबदकपा बारी-बारी से उन परिवारों में जाता है जहां पुत्र जन्म हुआ है। लबदकपा दोलम (नगाड़ा) की गूंज के साथ ग्रामीण साथ चलता हैं। घर में सभी का सत्कार होता है। लबदकपा को पारंपरिक वेशभूषा व आभूषणों से लदी सजी कलचोरपा स्थानीय फूलों को गुच्छा भेंट करती है। कल्चोरपा के लिए नियम है कि वे फमाछांई (मां-बाप जीवित) हो। उसके बाद लकड़ी के परात में सत्तू का लिंग बनाया जाता है। सत्तू को पानी में हल्वे की तरह पकाया जाता है। लिंग का आकार बनते ही उसमें अंगुलियों से छेद करके नमक व मक्खन भरा जाता है। बने हुए लिंग को फोकेन कहा जाता है। फोकेन को गांव के युवा कनिसका तक पहुंचाते हैं। खुलची (मेमने की खाल में भूसा भरा जाता है व मेमने जैसा ही दिखता है) बनाया जाता है जिसे लाऊपा उठाता है। गांव में जन्में पुत्रों की संख्या के अनुसार खुलची बनाया जाता है। संबंधित परिवार में एक ही खुलची बनता है। एक हल्डापा होता है उसे महिलाओं के पारंपरिक आभूषणों से सजाया जाता है। निश्चित अवधि में जलूस घर से निकलता है। सबसे पहले हाल्डापा उसके पीछे फोकेन उठाए युवा। कल्चोरपा व परंपरागत आभूषणों से लदी नवजात शिशु की मां। फोकेन उठा कर चलने वाले मित्र जमकर अश्लील वचनों का गान करते हैं। शिशु के मां व बाप पर खूब अश्लील फब्तियां कसते हैं। कनिसका में ग्रामीण हर घर से सिंचाई के पानी के हक के अनुसार मक्खन के मूर व मारकेनची बना कर लाते हैं। इस बीच नवजात कन्या को ढूंढ कर लाया जाता है। सांकेतिक विवाह की प्रथा पूरी की जाती है जिसे गोची बागमा कहा जाता है। गोची बागमा का दुल्हा लोऊपा होता है। उसके बाद फोकेन व मूर का भोग ग्राम देवता को चढ़ाता है। भोग चढ़ाने के बाद उसे ग्रामीणों में बांट दिया जाता है। गोच़ी बाकमा की नवजात दुल्हन को मूर व फोकेन का कुछ अधिक भाग दिया जाता है। इस प्रक्रिया के संपन्न होने के बाद ग्रामीण कुकुजी परिवार में मौजूद केलिंग बजीर के लाखांग ( देवालय) में एकत्रित होते हैं तथा ग्रेक्स का गायन करते हुए ग्राम देवता की अर्चना करते हैं। ग्रामीणों को अरग-छंग परोसा जाता है। नगाड़े बजते हैं। तीरकमान तैयार किया जाता है। बहुत बड़ा हल्डा (मशाल) तैयार होता है। ग्रेक्स का गायन संपन्न होते ही परंपरागत पूजा अर्चना के बाद मशाल जलाकर लबदक पा को ससम्मान कनिसका लाया जाता है। लबदकपा पुराने काले शाल के नीचे  तीरकमान को ढक कर लाता है। खुलची को निश्चित स्थान पर रखा जाता है। नर-नारियों की खूब भीड़ होती है व अश्लील वचनों का क्रम चलता रहता है। पूरी पूजा के बाद लबदकपा एक शुगशुग तीर दक्षिण दिशा की और छोड़ता है। उसके बाद खुलची पर निशाना साधने का काम शुरू हो जाता है। तीरदांजी सिर्फ लबदकपा ही करता है। ग्रामीणों में मान्यता है कि जितने तीर खुलची पर लगेंगे अगले वर्ष उतने ही पुत्र गांव में होंगे। तीरंदाजी के क्रम के बाद खुशी मनाते हुए ग्रामीण कनसिका में पहुंचकर शैणी नृत्य करते हैं। इस नृत्य में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती। उसके बाद गोच़ी के उपलक्ष में संबंधित घरों में होने वाले खान-पान व नाच-गान के आयोजन में शामिल होते हैं। लोअर केलंग में आयोजन हल्का सा भिन्न है।
 कारदंग में फोकेन को पकाने की बजाए पानी से गूंदा जाता है। लिंग आकार तैयार होते ही उसपर मक्खन से कुछ आकृतियां बनाई जाती है व लिंग के उपर मारकेनचि (मक्खन का बकरा) रखा जाता है। कारंदग में लबदकपा के दो परिवार हैं। गोच़ी की शुरूआत में ग्रामीण नगाड़े के साथ पहले छोटे लबदकपा के घर जाते हैं व उनके घर में पूजा की औपचारिकता के बाद छोटे लबदकपा को लेकर बड़े लबदकपा के घर जाते हैं। मुख्य लबदकपा के घर तीरकमान की पूजा होती है। घर से निकलने से पूर्व घंडाड व ग्राम देवता तंगजेर की अर्चना होती है। उसके बाद लबदकपा गोची के अनुरूप घरों में पहुंचता है। ग्रेक्स का गायन होता है। ग्रेक्स के गायन के अनुसार ही भोजपत्र पर कालिख से याक का चित्रण होता है। पांच घर में गोची का आयोजन हो तो पहले घर में याक का लिंग बनता है व अंतिम घर में याक पूरा आकार लेता है। एक घर से दूसरे घर में जाने के लिए ग्रामीण लबदकपा को खूब मनाते हैं। बारी-बारी से एक-एक को मनाया जाता है। बड़े लबदकपा को मनाने में काफी समय लगता है। हर घर में शुर,जौ व ऊन भोजपत्र की छोटी-छोटी पोटली में बांधा जाता है। इसे भरने का काम छोटा लबदकपा करता है। तमाम घरों में ग्रेक्स के गायन के बाद दोनों लबदकपा घरों से मिले शुर,जौ व ऊन लेकर देवता से संबंधित एक खेत में पहुंच कर भोग चढ़ाते हैं। उसके बाद वापस आकर हर घर से पूरे जलूस व अश्लील वचनों के गान के साथ फोकेन कनिसका में लाया जाता है। पूजा अर्चना का क्रम चलता है। उसके बाद बर्फ के ढेर के उपर लकड़ी के गट्टर रख कर भोजपत्र पर चित्रित याक को रखा जाता है व उसपर 
तीरंदाजी होती है। तीरंदाजी के बाद कनिसका में आकर सामूहिक नृत्य होता है व भोग चढ़ाया जाता है।
    

लब्दाग्पा पहुँच गए घर!



काल्चोरपा लब्दाग्पा को फूल देने को तैयार!



लब्दाग्पा फूल लेते हुए.



फूल अन्य मेहमानों को भी.




फ़ोकेन तैयार



छंग-अरग से भरे बर्तन.



फ़ोकेन उठाइए, चलो कानिस्का!



हल्डापा और कालछोरपा


पीठ पर बेटा, परम्परा का निर्वाहन 

मूर के साथ गाँव की महिलाएं 




चढ़ा मूर व फ़ोकेन का भोग 



केलिंग बजीर का लखांग 



लखांग में लब्दाग्पा


लखांग में ग्रेग्स गायन करते ग्रामीण 




बज उठे नगाड़े 



तीरकमान के साथ लब्दाग्पा 


निशाना साधते हुए लाब्दाग   


केलंग में गोच़ी के बाद गमच़ा का आयोजन होता है। गमच़ा गोची से जुड़ा व उसके बाद का आयोजन है व तिब्बती कलेंडर के चुरगु  (19 तारीख) के बाद गमच़ा का आयोजन नहीं होता। केलिंग बजीर के लाखांग वाले कुकुजी परिवार में पत्थर की चक्की होती है, जिसमें जौ के भुने हुए दानों को पीसा जाता है। यह सत्तू से अलग होता है व इसे दरे कहा जाता है। गमच़ा के दिन तीन स्थानों में पूजा की जाती है। गमच़ा में दो युवा शेपा बनते हैं जो पूजा के लिए गांव से ऊपर जाते हैं। अरग व दरे का भोग लगाते हैं व दूसरा ग्रुप केलिंग बजीर के लाखांग में भोग लगाते हैं व तीसरा ग्रुप लगजोमजी परिवार के खेत में एकत्रित होता है दरा को गूंध कर नौ छंगपा दांये हाथ की  में निचोड़ा गया बनाता है। दिन ढलते ही छोद के आवाज के साथ तीनों ग्रुप भोग चढ़ाते हैं। उसके बाद दोनों शेपा गायब हो जाते हैं व गांव में नवविवाहित जोड़ों के घर जाते हैं। नवविवाहित परिवार के परिजन ग्रामीणों को सूचित करते हैं कि शेपा उनके घर में हैं तो ग्रामीण इकत्रित होकर उसी घर में जुट जाते हैं। ग्रामीण ग्रेक्स का गायन करते हैं। ग्रेक्स में नवविवाहित जोड़े को पुत्र प्राप्ति की कामना की जाती है।  
#इस पोस्ट के लिए शरब कुकुजी व छेरिंग अंग्चुक 'चेपा' अताजी केलंग का आभार