Wednesday, February 3, 2010

फसल व उर्वरता का पर्व 'योर'

योर लाहुल का आदि पर्व है. लाहुल के कई गाँव में योर का आयोजन होता है. आयोजन को देख कर सरसरी यह लग सकता है कि योर मुखौटे पहन कर कुछ परम्परागत रस्मों की अदायगी के साथ मनोरंजन का ही माध्यम है, किन्तु योर को फसल व संतति का त्योहार माना जाता है. हास-परिहास का तत्त्व इस आयोजन में चरम पर होने के साथ अश्लील चेष्टा व वचनों का प्रयोग होता है. निशाण, दोलम, दमन ( नगाड़ा), पाउन, पीतल की बांसुरी, झांझे (सिंबल) योर के दौरान व समापन पर बजाये जाते हैं तथा शेणी नृत्य होता है. योर के अनुष्ठान में हल चलाने से लेकर फसल भंडारण की प्रक्रिया नृत्य की मुद्राओं से दर्शाई जाती है, मौसम व फसल की विस्तृत भविष्यवाणी होती है तथा सम्भोग व प्रजनन की प्रक्रिया अभिनीत की जाती है. आयोजन में असुर संस्कृति की झलक मिलती है, नाग, लिंग व अन्य देवताओं की पूजा होती है. लाहुल की भाषा-बोली में विविधता के साथ जीवनशैली व संस्कृति बदलती है, योर में सहज ही इस विविधता का असर दिख जाता है. पटन में मुखौटा नृत्य को 'मोहरा गारफी' व गाहर में 'बग क्योरिस' कहा जाता है तथा गाहर में योर रात में व पटन में दिन को खेला जाता है. गहार में मुखौटों के साथ शामिल होने वाले सात सदस्यों को शमारची या चौरो व पटन में सुरजणी कहते हैं. योर के मुखौटों की बनावट व आयोजन से स्पष्ट है कि योर बौद्ध पूर्व संस्कृति का अवशेष है. मुखौटे बौद्ध छम नृत्य की तरह कलात्मक न हो कर साधारण लोकशैली में बने होते हैं. योर के सन्दर्भ में लाहुल के संस्कृतिकर्मी व प्रखर कवि अजेय ने लाहुल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र 'गरजा पिति यरज्ञा न्यूज़' के पहले अंक में 'योर उत्सव के प्रकाश में प्राचीन लाहुल की संस्कृति' शीर्षक के तहत अपने लेख में विस्तार से योर के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की है. उनका कथन है कि 'योर उत्सव उस संस्कृति का अवशेष है, जो आर्यों का वर्चस्व बढने से बहुत पहले उतरी भारत के मैदानों में द्रविड़, कोल, किरात, खश, नाग आदि जनजातियों की साझी संस्कृति थी. लाहुल में ये अनार्य संस्कृति काफी देर तक जिन्दा बची रही, क्योंकि प्राचीन लाहुल का संपर्क बाहरी दुनिया से न के बराबर था.ऐसा प्रतीत होता है कि लाहुल में उर्वरता सम्बन्धी आदिम सम्प्रदायों का भी प्रभाव रहा है.' मुखौटे योर के दिन ही नियत स्थान से बाहर निकाले जाते हैं तथा योर खत्म होने के बाद मुखौटों को नहीं देखा जा सकता है.  हालडा या कुं के बाद योर पूरे लाहुल के छह गाँव में आयोजित किया जाने वाला उत्सव है. कुछ गाँव में योर बीते ज़माने की बात हो गई है. अब इसे बदलाव कहें या स्थानीय स्तर की विवशता, उस दौर के बड़े सांस्कृतिक या राजनीतिक केंद्र रहे तीन गाँव में ये आयोजन बंद हो गया है. जबकि छह गांवों में ये आयोजन यथावत है.इन गांवों में देव प्रकोप से बचने के लिए लोगों ने इस पर्व को जिन्दा रखा है.तीन आयोजन (त्रिलोकीनाथ,मडग्रां व उडगोस) में गुर की भूमिका होती है.जोबरंग में भविष्यवाणी मुखौटाधारी संकेतों में ही करते है.(# गुर देवी या देवता द्वारा चुना प्रतिनिधि, जिसके शरीर में प्रवेश कर जनसामान्य से देवता मुखातिब होते हैं) 

 बौद्ध बहुल तोद वेली के खंगसर में (पहला योर) ठाकुर परिवार वर्ष में दो बार (समर, विंटर) योर का आयोजन करता था,जिसे 'छोद्पा' कहते थे. ठाकुरों के अधीन पूरा कोलंग कोठी इस आयोजन में शामिल होता था. विभिन्न प्रकार के मुखौटे ठाकुर परिवार के पूजा कक्ष में हैं तथा आज भी वर्ष में दो बार ही नियत तिथि को उस कक्ष का दरवाज़ा खुलता है तथा पूजा की औपचारिकताओं के बाद कक्ष बंद कर दिया जाता है. ठाकुरों की जागीरदारी का अंत होने के बाद अब उनके वंशज सरकारी सेवाओं व अन्य कारणों से अपने पुश्तेनी घर में कम ही रहते हैं तथा अब पुश्तेनी मकान की देखरेख चौकीदारों के सुपुर्द है.ऐसे में छोद्पा आयोजन सहज नहीं है. ठाकुरों के पास मौजूद मुखोटों के बारे में कहा जाता है कि ये मुखौटे तोद के ही जिस्पा गाँव से लाये गए थे. जिस्पा के ग्रामीण मुखौटे पहन कर खंगसर आते थे, एक बार मुखौटाधारी टोली तेथबकुरकुर नामक स्थान पर हिमस्खलन की चपेट में आ गयी. उसके बाद जागीरदार ने फरमान सुना दिया कि मुखौटे अब खंगसर में ही रखे जायेंगे. 
दूसरा आयोजन गाहर के 'पयूकर व प्यसो'' गाँव में होता है. गाहर घाटी के अराध्य देव 'तंग्जेर व डबला' देवता के गाँव में होने वाले इस आयोजन में दूसरे गाँव के लोग शिरकत नहीं करते हैं. साल में एक बार हालडा के दो दिन बाद होने वाले पांच दिवसीय आयोजन में दो लकड़ी के मुखौटों (नर व मादा) को निकाला जाता है. इन मुखौटों को पूरे साल तंग्जर देवता के मंदिर में बने कक्ष में रखा जाता है. योर में दो मुखौटाधारी के साथ सात अन्य लोग जो शमारची कहलाते हैं, भी शामिल होते हैं तथा नृत्य में ही पूरे खेत में हल चलाने से लेकर फसल कटने तक का स्वांग करते है. पयूकर देव बंदिशों से भरा गाँव है. हालडा के दौरान गाँव में प्रवेश करने पर दंड स्वरुप देवता को सत्तू का 'ब्रंगेस' चढ़ाना पड़ता है तथा उत्सव के कुछ निश्चित अवधि तक गाँव के नियमित रास्ते पर चलना  सभी के लिए प्रतिबंधित होता है. ये प्रतिबन्ध तब उठता है जब बरबोग ठाकुर परिवार का सदस्य कुंस खत्म होने के बाद पहली बार गाँव आता है. 
तीसरा आयोजन जिला मुख्यालय केलंग के पार कारदंग गाँव में होता है, जिसकी चर्चा इस पोस्ट में फोटो के साथ करने जा रहा हूँ, यहाँ शमारची को चौरो कहा जाता है.
चौथा आयोजन प्राचीन लाहुल के सबसे बड़े सांस्कृतिक केंद्र गौशाल गाँव में होता था. तांदी संगम के साथ बसे इस गाँव में सनातन धर्म की ऐसी बयार आयी कि उसने तमाम पुरातन कड़ियों को उड़ा कर रख दिया.कहा जाता है के यहाँ लकड़ी के साथ एक लाल रंग का व कुछ सफ़ेद शंख के मुखौटे होते थे, जिसे बहुत पहले ग्रामीणों ने जमीन में गाढ दिया था. गौशाल के पुराने सांस्कृतिक आयोजन अब लोकगीतों में ही झलकते हैं. लोकगीतों से जाहिर होता है कि उस दौर में गौशाल के आयोजन कितने भव्य व रोचक रहे होंगे. गाँव की आराध्य देवी 'तिल्लो' का डेहरा (स्थानीय बोली में मंदिर) सनातन मंदिर में तब्दील हो गया तथा 'घंडाड' का डेहरा बौद्ध धर्म के प्रभाव के साथ गोम्पा बन गया. 'घंडाड' की मान्यता गाहर में योर के दौरान जबकि इसके आधीन तांदी कोठी में हालडा सहित कई उत्सवों में दिखती है. इसी कोठी के मूलिंग गाँव में भी योर के आयोजन की बात होती है, वर्तमान दौर में बुजुर्गों को भी याद नहीं है कि आयोजन में क्या होता था, सिर्फ इतना ही बताते हैं कि गाँव में इस आयोजन को 'पौरी' कहा जाता था. 
पांचवां आयोजन पटन क्षेत्र के शान्शा गाँव में होता था, यहाँ भी कहा जाता है के पचास के दशक में लकड़ी व ताम्बे के मुखौटों को नदी में बहा दिया गया. इस गाँव के आयोजन का विस्तार से वर्णन लाहुल की सांस्कृतिक पत्रिका चंद्रताल में स्वर्गीय आचार्य प्रेम सिंह शौंडा ने अपने लेख में किया है. 
छठा आयोजन शान्शा के पार जोबरंग गाँव में होता है. गंग्मी (नर) व मेच्मी(मादा ) मोहरा इस आयोजन के अंतिम दिन वर्ष भर की फसलों, बर्फबारी, बीमारियों व विपदाओं को लेकर विस्तृत भविष्यवाणी करते हैं. ग्रामीणों की मान्यता है के इस आयोजन को बंद नहीं कर सकते. एक बार ये आयोजन नहीं हुआ, उसी वर्ष पूरा गाँव हिमस्खलन की चपेट में आ गया था. उस घटना के बाद नियमित योर का आयोजन ग्रामीण करते हैं.
 सातवाँ आयोजन त्रिलोकीनाथ गाँव में होता है.तीन दिन के इस आयोजन में लगभग डेढ़ मंजिल ऊँचा  बर्फ का राश बनाया जाता है. इस दिन को सवा ट्रीक्टी  कहा जाता है. पहले दिन को क्वाची (छोटा)योर कहा जाता है.सुबह जोगनियों व बुरी शक्तियों  को खदेड़ने  के लिए सुरगी का आयोजन होता है.उसके बाद ग्रामीण ठाकुर परिवार की अगुवाई में महादेव के डेहरा योर के मुखौटे  लेकर निशाण,पाउन,रणसिंग,बांसुरी के राग के साथ जुलूस की शक्ल में यौरा लेकर क्वाल्पी करने जाते हैं. वहां से ठाकुर के घर पहुँचते हैं. उसके बाद राश का चक्कर लगा कर फिर सुरगी खेलते हैं.ठाकुर परिवार के पूर्वजों की सूचि लेकर यौरा चढाते हैं.यानी पितरों को अर्पण .यहाँ तीन मुखौटे होते हैं. मृकुला मंदिर के पुजारी की मौजूदगी में ठाकुर अपने पुश्तैनी मकान के बालकोनी में आकर बैठ जाता है. नाच गान का जलसा दिन भर होता है.दूर-दूर से आने वाले लोग व्यआर (त्रिलोकीनाथ ) को यौरा चढाने के बाद ठाकुर को यौरा देने जाते हैं. दोपहर बाद हिंसा गाँव से  नाग का गुर, झोलिंग बुहारी का गुर, मृकुला का गुर  देव आवेश में उभरते हैं व भेड़ की बलि दी जाती है.व्यआर के गुर की अगुवाई में लमशेंई (शेणीनृत्य की लम्बी श्रंखला ) डालते हैं . इस शेणी में सभी शामिल होते हैं व व्यआर का चक्कर लगाते हैं इस शेणी की श्रंखला मंदिर से लेकर गाँव  के मुख्यद्वार तक होती है .महिलाएं पुग (जो के भुने हुए दाने) बरसाती हैं .देर रात ठाकुर के घर नेस्वांई (हालनुमा कमरा ) में व्यआर का गुर  ठाकुरों के कुल देवता वीर को प्रसन्न करने के लिए भेड़ की बलि देता है. अंतिम दिन  सफ़ेद कपडे पहने मुखौटाधारी को ग्रामीण  सामूहिक तौर पर बर्फ के गोले मार कर भागते हैं .साथ सूरजणी जम कर अश्लील वचन का प्रयोग करते हैं.बताया जाता है कि कुछ अरसे के लिए ग्रामीणों ने योर का आयोजन बंद कर दिया था, उस समय त्रिलोकनाथ जो कि हिंसा व किशोरी गाँव के बीच स्थित है में जंगल से सेंकडों कौवों का झुण्ड आकर सिर्फ त्रिलोकनाथ  के ग्रामीणों के खेतों में फसल को बर्बाद कर लौट जाता था. ठाकुर परिवार ने नब्बे के दशक में आयोजन को फिर से आरम्भ करवा दिया .       
आठवां आयोजन मायाड घाटी के उडगोस गाँव में होता है. उडगोस योर मयाड के शक्तिशाली  लोकदेवता नागराजा को समर्पित है तथा नागराजा के प्रांगण में ही योर का आयोजन होता है. फसलों से जुड़े स्वांग के साथ सम्भोग व प्रसव का अभिनय इस योर में प्रमुखता से होता है. उडगोस योर के बारे में मान्यता है कि इसमें  भाग लेने वाले निसंतान दम्पति को अवश्य ही संतान की प्राप्ति होती है. 
नौवा योर लाहुल के एक अन्य महत्वपूर्ण साँस्कृतिक केंद्र मडग्रां गाँव में आयोजित होता है. मडग्रां के उप ग्राम चारु में नाग देवता के प्रांगण (स्थानीय बोली में  कुम्भ या स:वा) में योर खेला जाता है. बर्फ का राश बनाया जाता है. इस गाँव का भोमता परिवार नाग का पुजारी है.योर के दौरान मडग्रां के ठाकुर परिवारों के पूर्वजों के वंशावली की सूचियाँ लेकर शुर (जुनिपर की हरी पतियाँ, लाहुल में देव कार्यों में इसी का इस्तेमाल होता है ),  यौरा (अँधेरे में उगाए जो या अन्न के पीले रंग के छोटे-छोटे पौधे)अर्पित करते हैं, ताकि पित्तरों तक अर्पण ठीक पहुंचे.

 बंदिशों व विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते सभी योर एक साथ एक वर्ष में देख पाना संभव नहीं होता है. कुछ वर्ष पूर्व अनाड़ी हाथ में वीडियो कैमरा आया तो कारदंग योर शूट कर दिया, इसलिए कारदंग योर का आखों देखा हाल लिख रहा हूँ.






                                     कारदंग योर में मंगस-आलचा 

गाहर हालडा के 11 दिन बाद कारदंग में अवा बग (नर), अमा बग (मादा) को गाँव के एक मकान के छत से शाम ढलते ही निकाला जाता है. मुखौटों को निकाले जाने को मंगस-आलचा कहते हैं. इन मुखौटों को धारण करने वाले परिवार पुश्त-दर-पुश्त परम्परा का निर्वाहन कर रहे है. अवा व अमा बग को धारण करने वाले दो परिवार है. मुखौटों को पुरुष धारण करते है. मुखौटा धारण करने वाले पुरुष परम्परागत पोशाक छुबा पहनते हैं. छुबा के बाहर ल्हाग्पा (भेड़ की खाल) को लपेट लेते हैं. मुखौटों के साथ (दो-दो) मेमने की सूखी हुई दायीं भुजा व छोटी कुल्हाड़ी  रखी जाती है. मुखौटों को अपने सामने रख कर पूजा करते हैं. उसके बाद मुखौटों को धारण कर सिर में नकली बाल (संभवता काले याक का पूंछ) लगते हैं. दोनों मुखौटाधारी मेमने की भुजा व कुल्हाड़ी हाथ में लेकर ढोल के मद्दम थाप पर उस छत का सात चक्कर लगते हैं. उसके बाद मुखौटा पहने नज़दीक के कमरे में जाते हैं.




                                                 अवा-अमा बग




जहाँ सात चौरो छुबा पहन कर चेहरे पर नकाब लगाते हैं.नकाब के साथ मस्तक पर लकड़ी जुडा होता है जो क्रास आकृति जैसी लगती है. इस लकड़ी पर एक घुंगरू जैसी घंटी बंधी होती है. चौरो के तैयार होते ही अवा बग उनका प्रतिनिधित्व करते हुए उसी थाप पर कमरे के सात चक्कर लगाते हैं. अमा बग सबसे पीछे चलती है.इस बीच कोई आवाज़ लगाता है कि नौ मंजिल मकान में आग लग गयी है. लकड़ी छोटे-छोटे टुकड़े चिन कर मकान जैसा बनाया जाता है, फिर उसे आग के हवाले कर दिया जाता है.


  

    सांकेतिक नौ मंजिल भवन को जलाने का दृश्य 





उसके बाद नौ लोगों का समूह गाँव के सवा में प्रवेश करते हैं, नगाड़े के साथ व शुर को जला कर स्वागत होता है. नगाड़े पर ढोल वाला ताल बजता है और चौरो एक दूसरे का हाथ थाम कर (एंटी क्लाक वाइस) चक्कर लगाते है.सबसे आगे अवा बग तथा आखिर में अमा बग होती है. छत की मुंडेर व सवा में मौजूद महिलाएं व बच्चे अवा बग व अमा बग को खेप-खेप कह कर चिढाते हैं. अवा बग गंभीर मुद्रा में ही रहता है व कम चिढ़ता है, लेकिन अमा बग चंचलता प्रदर्शित करती है, खेप-खेप कहने वालों को खूब दौड़ाती है. इस बीच दोनों मुखौटाधारी गाँव के पूर्व में जा कर तंग्जेर देवता की अर्चना करते हैं व पश्चिम में गंडाड़ को पूजते हैं. दोनों फिर अलग-अलग जा कर अर्चना करते है व वापसी में मेमने की भुजा व कुल्हाड़ी पर बर्फ का टुकड़ा लेकर सवा के बीच में फेंकते हैं. पूरे गाँव से थाल में शुर के हरे पत्तों के ऊपर मूर (मक्खन से बनी चपटे व गोल सिक्काकार आकृति) के बीच मार केनचि ( मक्खन का बकरा) बना कर लाते हैं. हर थाल में फोची एक ही होता है जबकि सिक्काकार आकृतियों की संख्या कम या अधिक होती है (संभवता खेतों में पानी के पारंपरिक हक़ के मुताबिक) इस भोग को मुखौटा पहने अवा व अमा बग की मौजूदगी में लोक देवताओं को अर्पित किया जाता है. इसी के साथ पहली रात का आयोजन संपन्न हो जाता है.







                      चौरो या शमारची 






                      मूर और मार केनचि 




दूसरी रात मुखौटों को धारण करने से पूर्व सफ़ेद रंग से मुखौटों को सवांरा जाता है. चौरो नकाब उतार देते हैं, नकाब के बजाय सिर पर सफ़ेद कपडा पगड़ी की तरह लपेट लेते है. मुखौटों को धारण करने के बाद ग्रेक्स (योर से जुडा गीत) की शुरुआत होती है. हई लला...हई नती.. इस गीत के बोल हैं. गायन में गाँव के अन्य पुरुष भी शामिल होते हैं, लगभग एक से डेढ़ घंटे तक गायन होता है. गाते-गाते ही सवा में प्रवेश करते हैं. फिर पहली रात की तरह छेड़ने का सिलसिला शुरू होता है. अमा बग अपने नाज-नखरों से लोगों का खूब मनोरंजन कराती है. बर्फ के टुकड़े लेकर अवा बग अमा बग को आकर्षित करता है. मान-मनुहार के दो-तीन चेष्टाओं के बाद अवा व अमा बग संभोग (सांकेतिक) करते हैं.






                अवा व अमा बग छंग की चुस्की लेते हुए 






                        सफेद रंग से बग को सवांरता ग्रामीण






पीतल की बांसुरी, दोलम, झांझे बजते हैं. अलग-अलग राग के साथ गीत के स्वर भी तेज होते हैं. शेणी नृत्य आरम्भ होता है.नृत्य में अन्य ग्रामीण शामिल नहीं होते. अवा बग की अगुवाई में धीरे-धीरे नौ लोग थिरकते हैं. सभी गंभीरता से नृत्य में जुटते हैं, लेकिन अमा बग के नाचने का अंदाज़ शेणी के चेन में जुड़ने के बाबजूद मस्ती भरा व अलग होता है. खूब नृत्य के बाद आयोजन संपन्न हो जाता है.मुखौटों को फिर से उसी स्थान पर एक साल के लिए बंद कर दिया जाता है. इस योर में कोई भविष्यवाणी नहीं होती, न ही कृषि कार्यों को नृत्य में दर्शाते है.






                           ग्रेक्स का गायन करते ग्रामीण 






                                            शेणी नृत्य करते चौरो






गाहर के ही सतिंगरी, क्योर, मंगवन के ग्रामीण हालडा के सात दिन बाद परम्परागत तीरंदाजी का आयोजन करते हैं जिसे ज्ञुमपल्ची कहते है. सतिंगरी में देवता तंग्जेर को समर्पित आयोजन में ग्रामीण देवता के पुजारी के घर में जुटते हैं. मान्यता है कि गाहर बेली का आराध्य तंग्जेर तोद बेली के खंग्सर गाँव से सतिंगरी आया. कहा जाता है कि उस दौर में देवता नर बलि लेता था व देवता से ग्रामीण त्रस्त थे. ग्रामीणों को किसी महात्मा ने देवता से निजात दिलाते हुए भागा नदी में फेंक दिया. बहते हुए देवता सतिंगरी गाँव के समीप नदी में अटक गया. ग्रामीणों ने नर बलि न लेने के वचन के साथ उसे नदी से बाहर निकाला. कुछ अवधि सतिंगरी रहने के बाद देवता ने नदी पार पयूकर गाँव में बसने की इच्छा जाहिर की, उस के बाद वे पयूकर में ही बस गए, लेकिन सतिंगरी में देवता का थान (मूल स्थान) व उनका एक पुजारी परिवार अब भी है.






                                      ज्ञुमपल्ची में जुटे पुजारी 






                                           तैयार हुए आटे की आकृति 






                                                            तीर- कमान 




ज्ञुमपल्ची के दिन पुजारी परिवार तंग्जेर की शुर, फूल, अरग (शराब) पूजा करते हैं. दोलम के राग से साथ देवता का सम्मान होता है. तीन सेट तीर-कमान निकाले जाते हैं. उसकी भी पूजा होती है. अरग व छंग पुजारियों को परोसा जाता है. परात में  आटे की कुछ आकृतियाँ बनाते हैं. जिसे शुर के उपर रखा जाता है. रस्मो की अदायगी के बाद चूल्हे  में शुर डाल कर तीरंदाजी के लिए घर से बाहर निकलते हैं. आटे की आकृतियों को शुर के साथ बर्फ के उपर रख दिया जाता है. तीरंदाजी की शुरुआत करते हुए पुजारी परिवार के तीन सदस्य आकृति पर निशाना साधते हैं. उसके बाद तीरंदाजी में ग्रामीण भी शामिल होते हैं.






                                                          बज उठा दोलम 






                                                   निशाने की तैयारी 






                                                           शुरू तीरंदाजी






 तीरंदाजी संपन्न होते ही देवता के थान में अरग का भोग चढ़ता है. पुजारी परिवार ग्रेक्स (देव स्तुति का गीत) गाते है व शेणी नृत्य पर धीरे-धीरे थिरकते हैं. उसी दिन शाम को ग्रामीण इकट्ठे होते हैं तथा देवता को आमंत्रित करते हुए कई ग्रेक्स का गायन करते हैं. अरग व सामूहिक भोज के साथ आयोजन संपन्न होता है. गाहर के अधिकांश गांवों में तीरंदाजी का चलन  है.गुस्क्यर गाँव में  तीरंदाजी संपन्न होने के बाद आटा, सत्तू व काठु के खमीर की होली खेली जाती है. कपडे ख़राब होने या नाराज होने की कोई परवाह नहीं की जाती है.






                                  देवता का थान.




                                                 ग्रेक्स के साथ शेणी


पटन में खोगल के बाद अमावस्या (इस बार 13 फरवरी ) को कुं या कुंस आता है. कुं से पहले भित्ति चित्रण होता है.राजा बलि को समर्पित बराजा का चित्रण होता है. इस में चित्रित मौटिफ पत्ते, बूटे, बैल, गाय उर्वरता एवम बहुप्रजता के प्रतीक हैं. लिंग पूजा इसी संप्रदाय से संबद्ध है, जो विश्व के प्राचीनतम धर्मो में से एक है. लाहुल में देव कार्यों व उत्सवों में लिंग का प्रतीक सत्तू के टोटु या ब्रंगेस अर्पित करने की परम्परा है. असुरराज बलि वध की घटना को याद करते हुए कुं को बडिदानों तिहार( बलिदान का त्यौहार या बलि दानव का त्यौहार) कहा जाता है.तिंदी क्षेत्र में बलि की हत्या का कुं से पहली रात मातम मनाया जाता है.निश्चित समय तक अन्न-जल ग्रहण न कर मौन धारण करते हैं. पटन का कुं चन्द्रमा के गणना पर आधारित है. अमावस्या के तीन दिन पहले ही कुं की तैयारी शुरू होती है. पहले दिन गुन त्रेइन में भेड़ की बलि होती है. भेड़ की बलि न देने वाले परिवार चुंग (स्थानीय व्यंजन) बनाते हैं, भेड़ काटने वाले परिवार जूमा (भेड़ की आंत को भर कर बनने  वाला व्यंजन) या मो-मो बनाते हैं. घुनु यानी दूसरे दिन हर घर में मारचु (खमीरीकृत आटे से बनी मोटी पूरियां ), दंज़ा  (फोचे), लर दंज़ा( आटे के कुछ-कुछ पशु स्वरुप आकृति बना कर ग्रहों को शांत करने के लिए घर से बाहर फेंकते हैं.)  बनाये जाते हैं. घर के खिड़की-दरवाज़े पर चावल-दाल (प्राचीन लाहुल में ये साल में एक बार ही बनता था), मन्ना (दक्षिणी भारत के डोसा जैसा), घी का भोग चढ़ाया जाता है. तीसरे दिन कुयाग यानी नौ व्यंजन की रात चावल, दाल, मीट, मन्ना, एठ (पापड़ के तरह कड़क), दही, दूध, घी, सब्जी बनता है,  ग्रामीण लकड़ी फाड़ते है, पानी ला कर रखते हैं व मीट के पीस करते हैं. परिवार के सदस्य रात्रि भोजन जल्दी कर झूठे बर्तन साफ़ कर देते है, मान्यता है कि कुयाग की रात मर्गुल (उदयपुर) से मृकुला देवी मंदिर से वीर (मंदिर के दो द्वारपाल) पैदल सड़क मार्ग से तांदी संगम स्नान करने पहुँचते हैं व 'घंडाड' की देवी से मिलते हैं. मंदिर में वापसी नदी मार्ग से करते हैं. उदयपुर से तांदी तक वीर जहालमा, रुडिंग व ठोलंग में माता के उपासकों के घर पहुँचते हैं. कुयाग की रात ठोलंग व रुडिंग में उनके उपासक घर के छत पर वीरों की आव-भगत के लिए दो जोड़ी पुला (घास की बनी स्थानीय जूती), हुक्का भर कर आज भी रखते हैं. कुछ परिवारों के लोग पूरी रात जागते हैं. इसी दिन कुछ परिवार अपने आराध्य 'भूत' को रात्रि भोजन व धून (शुर का धुआं) देते हैं. घर के छत या आँगन में बर्फ के राश ( बर्फ का शंकु) बनाते हैं. राश के स्थापित होते ही लकड़ी फाड़ना, पानी लाना, मीट काटना वर्जित हो जाता है. तीसरे दिन कुं आरम्भ होता है, प्रात: पौ फटने से पहले राश के शागुण (पूजा) को रिंग क्वाल्पी कहते है तथा इस अवधि को कुं सिल कहते हैं. गृह स्वामी व स्वामिनी पारंपरिक वेश-भूषा में हालडा जला कर, यौरा की टोकरी, शुर, लक्शा (भेड़ की दाहिनी भुजा), तलवार लेकर राश की पूजा करते हैं. राश की पूजा करते हुए सृष्टि के तमाम देवी-देवताओं का स्मरण कर चारों दिशा में यौरा-शुर अर्पित करते हैं. पूजा के बाद हर दरवाजे पर यौरा की तीन गुछियाँ, घी के साथ लगा कर सुख-समृधि की कामना करते हैं. इस प्रक्रिया के बाद घर में प्रवेश करते ही कुं शुरू होने की औपचारिक घोषणा दरवाज़े से आवाज मार कर की जाती है. उसके बाद परिवार के सदस्यों के साथ कुं में यौरा व झोलुणु(पारम्परिक कृत्रिम फूल) के साथ एक दूसरे को डहाल (अभिवादन व बधाई) करते हैं. फिर गाँव में नजदीकी रिश्तेदारों के पास यौरा के साथ बधाई देने जाते है, उसके बाद गाँव के हर घर में बारी-बारी पहुँचते है, मॉस,मदिरा व व्यंजनों के साथ मेहमानों का स्वागत होता है. चौथे दिन पुना के दिन सुबह होड़ होती है महिलाओं में नल से पानी भरने की, गुनु के दिन बनाये  दंज़ा, मारचु. शुर, घी के साथ पानी, विशेषकर नाग की की पूजा होती है. जिन गाँव में लुहार परिवार हैं, उन गाँव में तमाम ग्रामीण सरा (शराब) सहित व्यंजन लेकर उनके घर जाते हैं. बदले में लुहार सुई, चिमटा या लोहे का अन्य सामान देता है तथा लुहार आटे के पशु बना कर खेत में हल चलाने का स्वांग करके दिखाता है. पांचवें दिन पुनाडा या मेहमाननवाजी का दौर शुरू हो जाता है. ग्रामीण पूरे गाँव को बारी-बारी अपने घर में आमंत्रित करके खातिरदारी करते हैं.
तिंदी क्षेत्र में कुं को सिल कहते हैं. हालडा व सिल पटन के साथ ही मनाते हैं हालडा के सात दिन बाद इस क्षेत्र में शामली मनाया जाता है, इस दिन गूर (देवी या देवता का चुना हुआ प्रतिनिधि) काँटों के ढेर पर बैठ कर फसल, मौसम सहित कई भविष्यवाणी करता है.इस क्षेत्र में सिल के दिन राजा बलि को सम्मान देने के लिए कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जाता जिससे राजा बलि का अपमान हो. ग्रामीणों की मान्यता है कि 24 घंटे के लिए सिल के दिन पृथ्वी का शासन राजा बलि के पास होता है, ग्रामीण पूरी मस्ती के साथ विभिन्न व्यंजन व मदिरा का पान करते हैं तथा एक दुसरे के घर यौरा देने जाते हैं, इस प्रक्रिया को जुकारु  कहा जाता है.
मयाड में पूरे दीवार पर चित्रण किया जाता है व लगभग हर जानवर इस चित्रण का हिस्सा होता है. पुना के दिन ग्रामीण यौरा की टोकरी, मारचु, अरग लेकर खेतों का कतार में चक्कर लगाते है उसके बाद घर आकर घर के छत पर बनाये राश की पूजा-अर्चना करते हैं फिर पीने-पिलाने का दौर शुरू हो जाता है.

# इस पोस्ट के लिए मिले सहयोग के लिए आभार. श्री अजेय सुमनम. श्री शेर सिंह गोहरमा, श्री सोनम छेरिंग गुस्कियर, श्री ध्यान सिंह कैन (तिंदी),श्रीमती मूरुब अंग्मो मूलिंग, श्री जयराम ठाकुर हिंसा, श्री अजीत रूबलिंग