Thursday, January 21, 2010

नववर्ष का पर्व हालडा



आप सबको 2010 हालडा,लोसर व खोगल की शुभकामनाएँ



लोसर, हालडा या खोगल लाहुल में सर्दियों में मनाया जाने वाला वर्ष का पहला पर्व या उत्सव है. इस आयोजन के बाद सर्दी खत्म होते तक अलग-अलग गाँव में अलग-अलग उत्सवों का दौर शुरू हो जाता है. लाहुल-स्पीति क्षेत्रफल के लिहाज से हिमाचल का सबसे बड़ा जिला है लेकिन आबादी सबसे कम (दो व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर). भाषा व बोलियों की विविधता के साथ सांस्कृतिक विविधता के बीच कुछ आयोजन ऐसे हैं जो पूरे लाहुल का सांझा आयोजन है. हालडा पर्व उन्ही में एक है. बौद्ध व हिन्दू आबादी वाले इस जिले में गाहर, पट्टन (चंग्सा, लोकसा,स्वान्गला/रेऊफा), तिनन, तोद, रंगलो, पतनम (म्याड), पिति (स्पीति), पंगवाली ( तिंदी), चिनाली व लोहार की भाषा-बोलियाँ हैं. तोद, रंगलो, पतनम (म्याड), पिति (स्पीति) की भाषा में समानता है,चंग्सा, लोकसा,स्वान्गला/रेऊफा बोली एक जैसे है, कुछ शब्दों को छोड़ दें तो फर्क सिर्फ लहजे व उच्चारण का है. भागा नदी के किनारे बसने वाली गाहर व तोद एक दुसरे के करीब होते हुए भी भाषा व बोली की दृष्टि से जुड़े नहीं हैं. चंद्रा नदी के किनारे की तिनन की आबादी रंगलो से अलग है. चंद्रा-भागा (चिनाब) के दोनों और पट्टन (चंग्सा, लोकसा,स्वान्गला/रेऊफा) की बोली में बहुत अधिक समानता है. लहजे व उच्चारण से अनुमान लग जाता है कि किस क्षेत्र से सम्बन्धित है. चिनाली व लोहार बोली एक दुसरे के करीब होते हुए भी अलग है. तिंदी की बोली पांगी से मिलती है. कुल मिलाकर लाहुल में भोटी,पट्टनी, गाहरी, तिनन, चिनाली व लोहार की भाषा-बोलियों का चलन है. भाषाई विविधता के बावजूद हलडा एक पर्व ऐसा है जो पूरे लाहुल में मनाया जाता है. पर्व का नाम, मनाने का समय, आयोजन की विधि थोड़ी-बहुत बदल जाती है.हालडा नववर्ष के आगमन से जुडा पर्व है. समय के साथ आयोजन में बदलाव दिख रहा है. परम्परागत महक गायब हो रही है. इस आयोजन में मॉस व मदिरा पूरे लाहुल में कॉमन है.व्यंजनों में मॉस महत्वपूर्ण है.हालडा के दौरान ही राजा बलि को समर्पित बराजा का चित्रण दीवारों पर होता है, अलग-अलग इलाके में चित्रण की विधि अलग है.कहीं बराजा विस्तृत है, कहीं कलात्मक, तो कही सामान्य. हल्डा के बारे में जो जानकारी थी या मिली उसमें संभव है कि कुछ छूटी भी हो. इस पोस्ट में गाहर, तोद व पट्टन के कबायली आयोजन की चर्चा कर उसे सहजने के साथ इस पर्व से रु-ब-रु कराने का प्रयास कर रहा हूँ.

गाहर में हालडा 24 जनवरी को है. हालडा देवदार की लकड़ी को छोटे-छोटे चीर कर लकड़ी का गट्ठर बना कर तैयार होता है. बौद्ध पंचांग के अनुसार हालडा फाड़ने व तैयार करने के लिए उपयुक्त राशि के जातक का चयन किया जाता है. हालडा तैयार कर घर में पूजा के स्थान पर रखा जाता है. हालडा घर से रात को बाहर निकालने का समय भी पंचांग से ही तय होता है. हालडा फेंकने वाले घर के पुरुष सदस्य पारंपरिक वेशभूषा में होते हैं तथा सर पर टोपी में गर्मियों में सहज कर रखे फूल पहनते हैं. घर में कई प्रकार के व्यंजन बनते हैं. हालडा निकालने से पूर्व घरों में कुल-देवता की पूजा होती है. भुने हुए जो से बने सत्तू का 'केन' बना कर उसमें घी डाला जाता है. केन व अरग या छंग ( देसी शराब) का कुल देवता को भोग लगाया जाता है. एक कप में केन डाल कर उसमे देवदार की हरी पत्ती लगते हैं. ये हालडा फेंकने वाला सदस्य अपने साथ ले जाता है. हल्डा को देवदार की हरी-सूखी पत्तियों व फूल से सवांरा जाता है. परिवार के सभी सदस्यों के सर पर खुशहाली व समृद्ध के प्रतीक के तौर पर घी का टिका लगाया जाता है. निश्चित अवधि के बाद हालडा को चूहले से जला कर घर से बाहर निकाला जाता है. ग्रामीण कतार में हल्डा को थामते हुए नगाड़े के साथ चलते हैं तथा गाँव के सीमा से दूर निर्धारित स्थल पर पूरे गाँव के हाल्ड़े को एक स्थान पर जलाते हैं. कप में लाये केन को ग्रामीण इक्कठा करते हैं तथा इष्टों को भोग लगते हैं. शेष बचे हुए केन को हल्डा की एक लकड़ी लेकर उसके एक सिरे पर लगा दिया जाता है.पारम्परिक शब्दों में जोर-जोर से एक सवाल करता है तथा बाकी ग्रामीण उसका अनुसरण करते हुए जबाव देते हैं और अंत में जल रहे हल्डा की तरफ उस लकड़ी को वारते हुए सामूहिक तौर पर हहिशा-वे-हहिशा....कहते हुए आग में फेंक देते हैं तथा एक-दुसरे पर बर्फ उछालने के बाद केन के खाली कप में बर्फ भर कर ले जाते हैं. महिलाएं हालडा फेंकने वाले स्थान तक नहीं आती और न ही हालडा फेंकती हैं. हालडा फेंक कर आये सदस्य को घर में तुरंत घुसने भी नहीं दिया जाता. महिलाएं स्थानीय बोली में कई बार पूछती हैं कि क्या लाये? पुरुष सदस्य जबाव में, सोने-चांदी के आभूषण, पालतू पशु, सुख-समृधि सहित कई आश्वासन देता है. पूरी तरह संतुष्ट होने पर ही घर का दरवाजा महिलाएं खोलती है और हल्डा फेंक कर आया सदस्य कप में भरा बर्फ परिवार के सदस्यों पर फेंकता है. और कुंस आरम्भ हो जाता है. इसी के साथ सात दिन तक ग्रामीण अपने घरों से नहीं निकलते और न ही किसी के घर जाते हैं.



कुलदेवता को केन और मार का भोग लगाता कबायली

केन से भरा कप


हालडा तैयार करता युवक

हालडा ले जाते लोग

इष्ट को केन का सामूहिक भोग
जल गए सभी हालडा


हाल्ड़े का समापन करते ग्रामीण


तोद में हालडा या लोसर 27 जनवरी को है. लद्धाख में दिसम्वर में ही मनाया जाता है उसके बाद तोद में. लोसर के पहले दिन गाहर की तरह ही पचांग देख कर हल्डा फाड़ने व निकालने का समय तय होता है. हालडा का आकार गाहर में सबसे बड़ा होता है. तोद व पट्टन में परिवार के पुरुष सदस्यों की संख्या के अनुसार हालडा बनते हैं और साइज़ में छोटा होता है.हालडा उस सदस्य के नाम पर भी तैयार होता है जो नौकरी या अन्य व्यवसाय के चलते उत्सव में नहीं है. इन सब के अतिरिक्त एक और हल्डा तैयार किया जाता है जिसे 'गल्फा' कहते हैं. गल्फा के मशाल में लकड़ी, भुर्ज कि टहनियां, कांटे की टहनी, घास इत्यादि होती है. दीवार पर आटे या सत्तू से बराजा का चित्रण होता है. 'फोचे' (आटे के आईबीईएक्स, बैल, बकरा इत्यादि) बना कर बराजा वाले कमरे की बीम के साथ रखा जाता है जो घर में सुख-समृधि लाने का सूचक होता है. आटे से ही दिये बनते हैं जो घर की खिडकियों में रख कर जलाया जाता है. पूरी तैयारी के बाद ग्रामीण एकजुट हो कर गाँव के सबसे बुजुर्ग के घर जाते है. बारी-बारी ग्रामीण हर घर में पहुँचते हैं. छंग-अरग व व्यंजन परोसे जाते हैं. हर घर में ग्रामीण पारम्परिक गीत गाते हैं सर्वप्रथम 'डल लू' योंग्शे ताशी....गाते हुए देवता को प्रसन्न करते हुए घर में आमंत्रित करते हैं. फूल व अन्य परम्परा से जुडी गीतों का सामूहिक गायन होता है. ज़न (केन) बनता है जिसे कुलदेवता को अर्पित करने के बाद मेहमानों को परोसा जाता है, कुछ खाने के बाद शेष केन पूरे शरीर से मल कर गल्फा के साथ फेंकने के लिए दिया जाता है. गल्फा हालडा से पहले फेंका जाता है, पूरे गाँव के लोग घर में होते है तथा गल्फा फेंकते हुए सामूहिक तौर पर उस घर के बुरे ग्रहों को खदेड़ने के लिए कुछ टप्पों का प्रयोग करते हैं. गल्फा फेंकने वाला टप्पों के अनुसार उस मशाल को जलाते हुए 'तेवो' (बसूला) से धीरे- धीरे प्रहार करता है तथा टप्पों के खत्म होते ही गल्फा को जला कर घर से बाहर दूर फेंक आता है. पूरे गाँव में घुमते हुए ग्रामीण छंग-अरग के सुरूर में चूर हो जाते हैं. ऐसा भी होता है कि हल्डा फेंकने का समय भी निकल जाता है. पट्टन व तोद में महिलाए भी हालडा फेंकती हैं. हालडा फेंकने के बाद घर में घुसने के लिए आश्वासनों की पोटली यहाँ भी खुलती है. हालडा के बाद सात दिन तक लोसर का आयोजन होता है. सातवें दिन ग्रामीण 'पुना' का आयोजन करते हैं. ग्राम देवता को समर्पित आयोजन में ग्रामीण याक बना कर तीरंदाजी करते हैं. सामूहिक आयोजन में छंग-अरग का दौर चलता है, इसी के साथ लोसर का समापन हो जाता है.


सज गए फोची!!!

दीवार पर बराजा चित्रण करता ग्रामीण.

गल्फा फेंकने की तैयारी
हाल्ड़े में गाँव में ऐसा होता है नज़ारा

पट्टन में हल्डा या खोगल 30 जनवरी को है. पट्टन में हल्डा हर साल 'उतना या साजा' (मकर संक्रांति) के बाद पहले पूर्णमासी को पड़ता है. खोगल से एक दिन पहले हल्डा तैयार किया जाता है.उस दिन को 'हल्डा बेल्डी' कहते हैं. गाहर में हालडा के साथ ही कुंस शुरू हो जाता है. तोद में भी हल्डा के साथ ही लोसर शुरू होता है लेकिन पट्टन में कुं या कुंस खोगल के बाद पहले अमावस्या को पड़ता है. पट्टन में भी हल्डा में महिलाओं की भागीदारी होती है.कुलदेवता को मनाया जाता है. भोग चढ़ता है. तोद के 'गल्फा' की तर्ज़ पर पट्टन में दो तरह के हालडा तैयार किया जाता है. सद (देवता) हालडा व नम (गल्फा टाइप) हालडा. पहले दिन हालडा को तैयार करने के बाद खोगल के दिन सुबह-सवेरे कुल देवता व इष्ट की परम्परागत अर्चना होती है. खोगल पर बने व्यंजनों का भोग लगाया जाता है निश्चित अवधि में हालडा निकला जाता है तथा कुं की अनौपचारिक शुरुआत हो जाती है. कुं खोगल के पूर्णमासी के बाद अमावस्या को होता है,जिसे कुं सिल कहा जाता है. कुं सिल से पहले गुनु, गुन त्रेइन तथा कुं सिल के बाद पुना आता है. गुन त्रेइन के दिन भेड़ की बलि हर घर में होती है. खोगल व कुं के दिन मॉस के बड़े-बड़े पीस परिवार के सदस्यों के अनुसार तैयार करते हैं, जिसे सिर्फ नमक डालकर पानी में उबाल कर पकाया जाता है. इस मॉस को शाखल कहते है. खोगल के दिन ही अँधेरे कमरे में जो के दानों को अंकुरित होने के लिए रख दिया जाता है जो कुं तक अंकुरित होकर पांच इंच तक बाद जाता है. सूरज की रौशनी न पड़ने से अंकुरित जो हरे के बजाये पीला होता है.उसे यओरा कहते हैं. कुं के दिन सुबह उठकर बुजुर्गों को यौरा देकर अभिवादन करते हैं. उसके बाद उम्र के लिहाज से बड़े गाँव के बुजुर्ग को यौरा देने जाते है.शाम तक पूरे गाँव में भ्रमण कर रिश्तेदारों, अग्रज के घर यौरा देते हुए घर-घर में व्यंजन, मॉस, मदिरा का आनंद उठाते हैं. कुं के साथ ही मेहमानवाजी का दौर भी शुरू हो जाता है, जिसे खंगगुल, पिस्केन, डोन या पुनाड़ा कहा जाता है. .









दीवाली ही नहीं हालडा में भी छूटते हैं पटाखे.
हो गयी हालडा की तैयारी

हाल्ड़े की मस्ती में झूमते लोग

Tuesday, January 12, 2010

साक्षात् `शीत´ देंगे अब दर्शन!!!


मैदान और पहाड़ में ठण्ड के अलग-अलग मायने हैं. शायद मैदान में ठण्ड के आने से पहले कोई अधिक तैयारी नहीं होती, लेकिन पहाड़ पूरी तैयारी के साथ ठण्ड का 'स्वागत' करता है.सुदूर हिमालय में बसर करने वाली आबादी ने सदियों से ठण्ड के साथ एक नाता जोड़ लिया है. मैदानों में भीषण ठण्ड में मरने वालों की खबर मिलती रहती है, पहाड़ से ये खबर कम ही है बल्कि न के बराबर होती है. मकर संक्रांति से 21 माघ तक हिमालयी इलाकों में ठण्ड अपने चरम पर होगी. इन दिनों रोहतांग के पार लाहुल में पारा शून्य से 15 डिग्री नीचे गोता लगा रहा है. हिमालय के अन्य भागो कि तरह सदियों से ठण्ड से लड़ते हुए लाहुल का जीवन अपनी ही गति से चलता रहा है.ठण्ड से जुड़े मिथ यहाँ ठण्ड से लड़ने के लिए जनमानस को मानसिक रूप से तैयार करते रहे हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी बुजुर्गों ने लाहुल के कठिन भूगोल के साथ सामंजस्य बिठाते हुए ठण्ड से जुड़े मिथकों को अपने दिनचर्या में रचा बसा लिया है.
घर फ़ोन पर बात होती है तो माँ ठण्ड की चर्चा करती रहती है. नल जम गए हैं, पानी ढोने की दिक्कत है. लकड़ी नहीं फाड़ी है..... माँ तंदूर सेकते हुए ठण्ड को लेकर ढेर सारी बात करती है. माँ से सहानुभूति होती है, मगर असहाय हूँ. अपने आप को तस्सली दे देता हूँ कि इन दिनों ठण्ड लाहुल के लिए कोई नई बात नहीं है. कुछ दिन पहले मेरी केलंग में अजेय भाई से फ़ोन पर कुछ ऐसी ही चर्चा हुई तो उन्होंने मुझ से कहा कि लाहुल में शीत से जुड़े मिथक पर तुमने कभी खबर भी लिखी थी, तुम्हे अपने ब्लॉग पर ऐसे खबरों को सहेजना चाहिए. मुझे याद है कि उस रिपोर्ट के लिए मैंने उनकी भी मदद ली थी.पत्रकार हूँ पत्रकारिता की सीमा नहीं लाँघ सकता था. तीन कालम में स्टोरी समेटने की कोशिश में बहुत कुछ छूट भी गया. जिसे में सहेजना चाहता था. ब्लॉग ने मुझे मौका दिया तो मैं फिर डट गया.इस पोस्ट को डालते हुए फिर से लाहुल के पट्टन घाटी के इस मिथक व शीत को संबोधित 'गीत' के बोल जानने के लिए कई लोगों से संपर्क किया. जो कुछ भी मिला उसे मैं साँझा कर रहा हूँ
.

(file photo tandi sangam)

मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी को शीत (बर्फ का आदमी) ज़रिम (ग्लेशियर) से निकल कर चन्द्र-भागा नदी के संगम (तांदी में लाहुल की दोनों नदियों का संगम होता है और चिनाब बनती है) में डूबकी लगाता है. जरिम से प्रवास पर निकले शीत का असर अत्याधिक ठण्ड के रूप में पूरे इलाके में 21 दिनों तक रहता है. इस अवधि में पूरे इलाके में ठण्ड अपने चरम पर होता है. नदियों का उपरी सतह जम जाता है. लोग अपने घरों में सिमट कर रह जाते हैं. पुराने समय में शीत की कहानी बच्चों को इतनी जीवंत तरीके से सुनाते थे कि शीत का खौफ और आतंक हावी होता था. दादा-दादी शाम ढलते ही बच्चों को 'शीत' के प्रवास का हवाला दे कर घर से बाहर निकलने से रोकते थे. मकर संक्रांति के बाद 16वें दिन नदी से बाहर निकलता है.17 वें दिन 31 जनवरी को शीत नदी के किनारे, 18 वें दिन घराट में तथा 19 वें दिन गाँव से गुज़रते हुए चारागाह जाने के रास्ते पर, 20 वें दिन पहाड़ की चोटी पर पहुँचता है. 4 फरवरी को 21 वें दिन शीत अपने घर ज़रिम में समां जाता है. मान्यता है कि घर लौटते हुए शीत मवेशियों की छाती पर चिपक जाता है.औरतें और बच्चे शीत के जाने की ख़ुशी में मनाते, भुर्ज की टहनियों से डंगरों झाड़ते हुए गाते हैं.

हमभरु-यमभरु
शीत इली, रीत जिर्ज़ी
मागम संगड़े, पर्वत बेले
नीरू ज़े छोशे, बोशे अताएँ
सोई ती तुन्गुई, तिनगी दंग्ज़ा रुअकसुईं
शीत इली, नीरू सौनरु रुअकसुईं
सोई दियाडा इली,टोटेउ दिहाड़ा आती

# शीत का ये गीत श्रीमती मुरुब अंग्मो मूलिंग तथा श्री मेहर चंद जुंडा ने अंशों में सुनाये. दोनों को जोड़ कर लगा दिया.

गीतों के संदर्भ में किये संपर्क में महसूस किया कि आज का लाहुल इन गीतों को लगभग भूल चुका है. अब पट्टन में शीत झाड़ने की औपचरिकता ही होती है. संभव है कि किसी गाँव में ये गीत पूरा मिल जाये. संपर्क करते हुए रोचक जानकारी मिली कि लाहुल के चिनाली बोली में शीत झाड़ने की परम्परा है तथा शीत के मिथ का आरम्भ भी यही से हुआ. इस बोली के अधिकांश शब्द संस्कृत के हैं (इस पर चर्चा अलग से कभी फिर करूँगा) बुद्धोलोजिस्ट छेरिंग दोर्जे ने बताया कि शीत का मिथ यहाँ से ही पट्टन में फैला है. तथा शीत का गीत इस बोली में विस्तृत हो सकता है. उत्सुकतावश संपर्क करते हुए सिर्फ चार लाइने मिली वो भी जुंडा गाँव के 80 वर्षीय बुज़ुर्ग तेज राम जी से.

झड शीत: झड
नीरू सौनरु चर
प्रिवो ठो उड़क
बहसू ठो बढ़

(अनुवाद लगभग स्पष्ट है #प्रिवो ठो उड़क- पिस्सू की तरह उछल, बहसू ठो बढ़-खटमल की तरह बढ़ो)


आधी-अधूरी जानकारी से निराश जहेन में अजेय भाई की कविता ही घूमती रही. शीत के आंचलिक सन्दर्भ को जिस खुबसूरती से अपनी रचना 'दोर्जे गाइड की बातें' में समावेशित किया, उसे याद करते हुए पहल-85 एक बार फिर से खंगाल डाला. शीत से जुड़े पोस्ट को सार्थक करने के लिए पहल-85 से साभार इस कविता को अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ.

दोर्जे गाईड की बातें
(गंगस्तअंग हिमनद का नज़ारा देखते हुए)
इससे आगे?
इससे आगे तो कुछ भी नहीं है सर!
यह इस देश का आखिरी छोर है।
इधर बगल में तिबत है
ऊपर कश्मीर
पश्चिम मे जम्मू
उधर बड़ी गड़बड़ है
गड़बड़ पंजाब से उठकर
कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ हैं
सर उठाकर
सबको पानी पिलाते हैं
दूर से देखने मे इतने सुन्दर
पर ज़रा यहाँ रूककर देखो .................
नहीं सर,
वह वैसा नहीं है
जैसा कि अदीब लिखता है-
भोर की प्रथम किरणों की
स्वर्णाभा में सद्यस्नात्
शंख-धवल मौन शिखर,
स्वप्न लोक, रहस्यस्थली .......
वगैरा-वगैरा
जिसे हाथों से छू लेने की इच्छा रखते हो
वो वैसा खामोश नहीं है
जैसा कि दिखता है।
बड़ी हलचल है वहाँ दरअसल
बड़े-बड़े चट्टान
गहरे नाले और खाई
खतरनाक पगडंडियाँ हैं
बरफ के टीले और ढूह
भरभरा कर गिरते रहते हैं
गहरी खाईयों में
बड़ी ज़ोर की हवा चलती है
हड्डियाँ काँप जाती हैं, माहराज,
साक्षात् `शीत´ रहता है वहाँ!
यहाँ सब उससे डरते हैं
वह बरफ का आदमी
बरफ की छड़ी ठकठकाता
ठीक `सकरांद´ के दिन
गाँव से गुज़रते हुए
संगम में नहाता है
इक्कीस दिनों तक
सोई रहती है नदियाँ
दुबक कर बरफ की रज़ाई में
थम जाता है चन्द्रभागा का शोर
परिन्दे तक कूच कर जाते हैं
रोहतांग के पार
तन्दूर के इर्द गिर्द हुक्का गुडगुड़ाते बुज़ुर्ग
गुप चुप बच्चों को सुनाते हैं
उसकी आतंक कथा।
नहीं सर
झूठ क्यों बोलना?
अपनी आँखों से नहीं देखा है उसे
पर कहते हैं
घर लौटते हुए
कभी चिपक जाता है
मवेशियों की छाती पर
औरतें और बच्चे
भुर्ज की टहनियों से
डंगरो को झाड़ते हैं-
'बर्फ' की डलियाँ तोडो
'डैहला' के हार पहनो
शीत देवता
अपने 'ठार' जाओ
बेज़ुबानों को छोड़ो
सच माहराज, आँखों से तो नहीं............
कहते हैं
गलती से जो देख लेता है
वहीं बरफ हो जाता है
'अगनी कसम'।
अब थोडा अलाव ताप लो सर,
इससे आगे कुछ नहीं है
यह इस देश का आखिरी छोर है
'शीत' तो है यहाँ
उससे डरना भी है
पर लड़ना भी है
यहाँ सब उससे लड़ते हैं जनाब
आप भी लड़ो।
1986