Tuesday, December 7, 2010

पिंगरी-स्पीति में मुंडन संस्कार


स्पीति यात्रा के दौरान लाहुल-स्पीति के विधायक डा. रामलाल मार्कण्डा के साथ किब्बर व शेगो गांव में जाना हुआ। एक ही दिन दोनों गांवों में पिंगरी का आयोजन था। मुंडन की परंपरा को स्पीति में पिंगरी कहा जाता है। अक्टूबर माह से स्पीति में नवजातों के पिंगरी का दौर चलता है। पहली मर्तबा पिंगरी में जाने का अवसर मिला। 15 नवंबर को लाहुल के जाहलमा से चले। लंबी यात्रा करते हुए कुंजोम दर्रा पार कर लोसर सर्किट हाउस पहुंचे। पूरे स्पीति से विधायक को रिसीव करने कार्यकर्ताओं पहुंचे थे। पिंगरी अटैंड करने किब्बर की और चल पड़े। वाहनों का लंबा काफिला था। देर शाम किब्बर में निर्धारित घर पहुंचे तो विधायक का स्वागत हुआ। दूर दराज से रिश्तेदारों का आना जाना चला हुआ था। मेरे लिए स्पीति में ऐसे आयोजन का नया अनुभव था। भोज के उपरांत कुछ देर उसी घर में गीत-संगीत का कार्यक्रम चलता रहा। थोड़ी ही देर में परंपरागत अंदाज में बजंतरी मेहमानों को छंका हाल (सामुदायिक भवन) में आमंत्रित करने पहुंचे। वाद्ययंत्रों की गूंज के साथ छंका हाल पहुंचे। 






बहुत बड़े हाल में सैंकड़ों लोगों की मौजूदगी मेरे लिए हैरत का ही सबब बना। पारंपरिक परिधानों व आभूषणों में सजे लोग, मदिरा व व्यंजनों का दौर। शून्य से नीचे तापमान में लोग खूब गर्म कपड़ों के साथ डटे हुए थे। तीन दिन तक चलने वाले इस आयोजन की भव्यता कौतुहल जगा रही थी। स्पीति में ज्येष्ठ पुत्र, ज्येष्ठ पुत्री सहित छोटे बेटे जिसे लामा कहा जाता है के मुंडन का आयोजन किया जाता है। स्पीति में बड़े बेटे को पैतृक संपत्ति का अधिकार है व छोटे बेटों को भिक्षु बना दिया जाता है, यही कारण है कि भले ही वह भिक्षु बने या न बने उसे लामा ही कहा जाता है।





 पिंगरी के लिए बकायदा शुभ दिन का चयन होता है। तीन दिवसीय इस आयोजन के पहले दिन को छिंगफुद, दूसरे दिन पिंगरी मोला तथा तीसरे दिन को छंगलग कहा जाता है। छिंगफुद में ग्रामीण एकत्रित होते हैं व पिंगरी की तैयारियां की जाती है। पिंगरी मोला के दिन ग्राम देवता गुर के माध्यम से आवेशित होते हैं व नवजात व आयोजन के संदर्भ में भविष्यवाणी करते हैं। दूर-दूर से रिश्तेदार पहुंचते हैं। बौद्ध धर्म समर्पित क्षेत्र में लोकदेवता की मान्यता से चौंका जरूर, लेकिन प्रक्रिया नहीं देख पाया। 






नवजात के मंगलमय भविष्य के लिए बौद्ध परंपरा के अनुसार पूजा व प्रार्थना होती है। माइक लगा कर कर छंका हाल के शोरगुल के बीच एनाउंसमेंट होती है। लाहुल में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को सामाजिक आयोजनों में जुटते नहीं देखा था। साथ ही मुंडन की रस्म ज्येष्ठ पुत्र के लिए ही अदा की जाती है। बताया जाता है कि इस भव्य आयोजन का खर्च भी अधिक है व उसी अनुपात में नवजात को तोहफे नकद दिए जाते हैं। किब्बर के पिंगरी के बाद शेगो के लिए चल पड़े। शेगो पहुंच कर सर्वप्रथम स्वागत हुआ और भोज में मो मो दिए गए।  





वेजिटेरियन व नॉन वेजिटेरियन लोगों के हिसाब से मो मो बने थे। भोज के बाद आयोजन स्थल पर पहुंचे। यहां छंका हाल के बजाए विशाल पंडाल लगा हुआ था। पूछने पर पता चला कि छंका हाल गांव से कुछ हट कर बना है, इसलिए पंडाल लगा है। प्लास्टिक के शीट से पंडाल को चारो तरफ से ढक़ दिया गया था ताकि ठंडी हवा व कम तापमान से मेहमानों को परेशानी न हो। साथ ही हीटिंग के लिए मदिरा का प्रबंध तो था ही। 


परंपरागत पोशाकों में सजी महिलाओं ने मंगल नृत्य किया। परंपरा के अनुरूप मंगल गीत गाए गए। नवजात के रिश्तेदार नृत्य के नर्तकों को क्षमता के अनुसार रूपये देते हैं। सामूहिक गायन व नृत्य के दौर के बाद देर रात शेगो से काजा की और चल पड़े। 



हालांकि पिंगरी की पूरी रस्म नहीं देख पाया किंतु परंपरा व संस्कृति से जुड़ा भव्य आयोजन मेरे जहन में बस गया। संभव ही नहीं था कि पहली बार अधूरे आयोजन को देख कर पूरी प्रक्रिया को समझा जा सके। 





अफसोस इस बात का है कि मैं इस आयोजन को कैमरे में कैद नहीं कर सका। इस वर्ष 17 जू
न को हुए मेरी बेटी जिगमेद कुंसिल के मुंडन संस्कार के फोटो अपलोड कर पोस्ट में रंग भरने का प्रयास कर रहा हूँ.

Thursday, December 2, 2010

जिस्पा डेम-संघर्ष या राजनीति!

ब्लाग व इंटरनेट की दुनिया से लंबे ब्रेक के बाद नए पोस्ट के साथ दस्तक दे रहा हूं। मई माह में कुल्लू से लाहुल आ गया। पत्रकारिता को अलविदा कहते हुए रोजी रोटी के जुगाड़ में डट गया। प्रस्तावित जिस्पा डेम को लेकर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे थे। जिस्पा में राष्ट्रीय महत्व की लगभग 200 मीटर ऊंचे वाटर स्टोरेज डेम व जलविद्युत परियोजना प्रस्तावित है। हालांकि इस विरोध से जुडऩे का आग्रह रिगजिन हायरपा करते रहे लेकिन मेरी विवशता यही थी कि जिस्पा व आसपास के क्षेत्रों से जमीनी तौर पर जुड़ाव मेरा न के बराबर ही रहा है। पांच गांवों के विस्थापन के मुद्दे पर कहीं न कहीं मेरी स्थिति ‘तू कौन मैं कौन खामखहा’ जैसी ही थी। इस बीच आरटीआई के तहत रिगजिन ने प्रस्तावित डेम के पीपीआर को हासिल कर लिया। रिपोर्ट को देखने के बाद पाया कि डेम के पानी को 5/5 डाया के लगभग 10 किलोमीटर लंबे 2 सुरंगों के माध्यम से लाया जा रहा है ताकि 300 मेगावाट की जलविद्युत परियोजना का निर्माण दो चरणों में हो सके। भूमिगत सुरंग मेरे पंचायत से निकल रहा है। यही एक कारण था कि मुझे अपने लोगों से जुडऩे का मौका मिल गया। विरोध की तैयारियां आरंभ हो गई। निर्णय लिया कि तीन पंचायतों के लोगों को मिला कर विशाल विरोध प्रदर्शन करेंगे। संघर्ष समिति के अध्यक्ष रवि ठाकुर के होने की बात की गई लेकिन समिति के अन्य पदाधिकारियों का कोई अता पता नहीं था। संघर्ष समिति गठित हुए बगैर ही हम डट गए। रिगजिन बतौर संयोजक व मैं सहसंयोजक के तौर पर संघर्ष व विरोध को गति देने में जुट गए। राजनीति से हट कर डेम व जलविद्युत परियोजना के दुष्प्रभावों व विस्थापन के मसले पर लोगों को जागरूक करने लगे। निर्णय हुआ कि एचपीसीएल से शुरूआती दौर में किसी भी स्तर पर बातचीत न हो। कंपनी के अधिकारी ग्रामीणों से एक टेबल पर बातचीत को तरसें। कंपनी के अधिकारियों का बहिष्कार व घेराव हो। प्रारंभिक सर्वे करने से रोका जाए। सूचना मिली कि एचपीपीसीएल के एमडी तरूण कपूर 7 जून को ग्रामीणों से बातचीत के लिए आ रहे हैं। रणनीति बनी कि उसी दिन केलंग में विशाल रैली निकालेंगे। प्रस्तावित डेम व परियोजना से प्रभावित होने वाले तीन पंचायतों के लोगों को सूचित किया गया। आखिर 7 जून, 2010 को संभवता लाहुल के इतिहास में पहली मर्तबा विशाल विरोध रैली निकली।


जमकर परियोजना के विरोध में गुब्बार निकला। महिलाओं की सक्रिय भागीदारी ने विरोध को धार दी। सतींगरी से जिला मुख्यालय केलंग (करीबन सात किलोमीटर) तक पदयात्रा करते हुए पहुंचे। खूब नारेबाजी हुई। डेम व जलविद्युत परियोजना के विरोध में महामहिम राज्यपाल व प्रदेश के मुख्यमंत्री को ज्ञापन प्रेषित किया। सफल विरोध रैली ने एचपीपीएल को बैचेन कर दिया। संभवत: विरोध रैली की सूचना एमडी तरूण कपूर को मिल गई, नतीजतन वह लाहुल नहीं आए। रैली की सफलता से उत्साहित अगली रणनीति बनी। वाटर स्टोरेज डेम व जलविद्युत परियोजना के विरोध में लाहुल के पंचायती राज संस्थाओं को पत्र लिख कर समर्थन मांगा। विरोध प्रस्ताव का खाका तैयार कर भेजा गया। संघर्ष समिति के स्वयंभू अध्यक्ष रवि ठाकुर की राजनीतिक अपरिपक्वता ही थी कि विरोध व संघर्ष में कांग्रेस-भाजपा की प्रतिबद्धता को अलग न रख सके। अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं की उड़ान में हमारी मौजूदगी उन्हें खलती रही। संघर्ष में दरार डालते हुए सर्वप्रथम निर्णय के विपरीत वह कुल्लू में एचपीपीसीएल के अधिकारियों से मिले। फिर उन्हें जिस्पा में बुला लाए। एचपीपीसीएल के अधीन इस परियोजना के डीजीएम अमर लाल ठाकुर हैं जो लाहुल के जाहलमा गांव के हैं। संभवत: रवि ठाकुर के आमंत्रण पर बैठक में पहुंचे थे। इस बैठक की सूचना हमें नहीं मिली, तर्क दिया गया कि हमारी जमीन दारचा पंचायत में नहीं है। जब रिगजिन ने कहा कि उनकी जमीन जिस्पा में है तो उन्हें अनमने तरीके से कहा गया कि तो आप बैठक में आ सकते हैं जबकि उस समय वह केलंग में मेरे साथ थे। बैठक में वह नहीं पहुंच सके। सूचना मिली कि बैठक में अमर लाल ने कहा कि डेम तो हर हाल में बनना है विरोध के कोई मायने नहीं है। साथ ही उन्होंने ग्रामीणों को हास्यास्पद तरीके से गुमराह किया कि राज्यपाल या मुख्यमंत्री को ज्ञापन प्रेषित करने का कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि आप विरोध करते हैं तो औने-पौने दाम पर सरकार आपकी जमीन का अधिग्रहण करेगी। विरोध नहीं करते हैं तो आपको प्रति बिस्वा कंपनी तीन लाख रूपये देगी। श्री अमर लाल ने कंपनी व सरकार के हित को साधते हुए एक तीर से दो निशाने साध दिए। ग्रामीणों को डर भी दिखा दिया व लालच देते हुए ‘फूट डालो शासन करो’ की नीति का सूत्रपात कर दिया। दोष उनका भी नहीं है। हम लोगों में से ही कुछ डेम के बनने को लेकर उत्साहित दिख रहे हैं। हालांकि इस बैठक में मु_ी भर लोगों की मौजूदगी रही। कहीं न कहीं इसका आकलन शुरू हो गया कि तीन लाख के हिसाब से किसे कितना मिल रहा है? सुनियोजित तरीके से यह बात भी ग्रामीणों में फैला दी गर्ई कि डेम तो किसी भी सूरत में नहीं रूक सकता, इसे तो बनना ही है। यह तथ्य है कि लाहुल में विरोध की संस्कृति का कोई इतिहास नहीं रहा है। परियोजनाओं को देखा नहीं है व उसके दुष्प्रभावों से अवगत होने का भी सवाल ही नहीं है। निर्माणाधीन रोहतांग सुरंग लाहुलियों की बहुप्रतीक्षित मांग है। उसके दुष्प्रभावों से किसी को कुछ लेना देना नहीं है व आम लाहुली यही चाहता है कि किसी भी सूरत में सुरंग का निर्माण हो। रोहतांग सुरंग की निर्माता कंपनी से नफे-नुकसान का सवाल स्थानीय स्तर पर कभी नहीं उठ सकता। अपने कवि मित्र अजेय से एक चर्चा के दौरान इस रोचक तथ्य का खुलासा हुआ कि लाहुल की स्थानीय बोलियों में दुश्मन के लिए कोई शब्द ही नहीं है। साफ हो गया कि विरोध या संघर्ष हमारी संस्कृति में ही नहीं है। इस बीच विभिन्न पंचायतों के समर्थन प्रस्ताव मिल रहे थे। निर्णय यही था कि तमाम पंचायतों के समर्थन प्रस्ताव के साथ जबरदस्त हस्ताक्षर अभियान चला कर केंद्र सरकार को प्रेषित करेंगे। 5 जुलाई को पूरे लाहुल में ग्राम सभा प्रस्तावित था। रिगजिन के साथ दारचा व कोलंग पंचायत में ग्राम सभा में जाने का निर्णय लिया। दारचा पंचायत की ग्राम सभा में ग्रामीणों का रोष रवि ठाकुर के प्रति झलक रहा था। रोष था कि निर्णय के विरूद्ध वह एचपीपीसीएल के लोगों से मिले व तमाम लोगों को सूचित किए बगैर एचपीपीसीएल के लोगों के साथ बातचीत हुई। ग्राम सभा में रवि ठाकुर की एंट्री के साथ ही रोष छुमंतर हो गया। हालांकि यहां मेरी मुखरता कुछ लोगों को जरूर अखरती रही। सुना जा रहा था कि जिस्पा में रवि ठाकुर के होटल में एचपीपीसीएल का कार्यालय खुलने जा रहा है। विचित्र स्थिति थी जिस्पा बांध संघर्ष समिति के अध्यक्ष एक और तो विरोध का झंडा बुलंद कर रहे थे तो दूसरी और कंपनी के अधिकारियों के साथ बराबर सीटिंग कर अपने होटल में टी पार्टी दे रहे हैं। विरोध में विरोधाभास। दोहरा स्टैंड। सवाल उठाया तो तर्क था कि वो उनका व्यवसाय है। जबाव दे दिया कि वह व्यवसाय जरूर करे लेकिन पूरे इलाके को बेच कर नहीं।

  
  रवि ठाकुर की परियोजनाओं के संदर्भ में सीमित जानकारी ही है कि ग्राम सभा में बोले सिंगुर में जो बांध बना है उसके विरोध में... उसी समय टोक दिया कि ठाकुर साहब सिंगुर में कोई बांध नहीं है, तो तुरंत जेपी के किन्नौर में बने परियोजना की चर्चा करते हुए कह उठे कि विरोध करेंगे तो पुलिस की लाठियां व अदालती केस झेलने पड़ते हैं। कहने भर की देर थी कि रहा नहीं गया, मुंह से निकल ही गया कि ठाकुर साहब, डर रहें हैं या डरा रहे हैं? संघर्ष समिति के स्वयंभू अध्यक्ष कुछ इस तरह से जिस्पा डेम के विरोध का झंडा बुलंद कर रहे हैं। स्पष्ट है कि वह मन बना चुके हैं कि डेम बनाना ही है। बात भी सही है उनके अपने मिट्टी से जुड़ाव को लेकर मुझे गंभीर संदेह है। जिस शख्स ने लाहुल की सर्दी व दुश्वारियों को नहीं झेला, मात्र एक आलीशान होटल उनके जुड़ाव को पुख्ता नहीं कर सकती। ग्राम सभा में मेरी मुखरता को पुराने विवाद के साथ जोड़ कर देखा गया। कुछ लोगों ने डेम के संदर्भ में दिए मेरे पुराने वक्तव्य की आड़ में मुझे घेरने की कोशिश भी की। कुछ देर बाद जिस्पा डेम की गर्मागर्मी नरेगा के तहत होने वाले पौध वितरण की गहमागमी में तब्दील हो गई। इतना जरूर पता चला कि एचपीपीसीएल ने दो पंचायतों से एनओसी के लिए पत्र लिखा है जिसपर यही निर्णय हुआ कि किसी भी प्रकार की एनओसी फिलहाल कंपनी को न दिया जाए। दारचा ग्राम सभा के बाद हम कोलंग पंचायत की ग्राम सभा में शामिल होने के निकल पड़े। जहां इस मसले पर पहले की चर्चा चल रही थी। इंतजार हमारे पहुंचने का हो रहा था। हमारे साथ-साथ रवि ठाकुर भी अपने वाहन में गेमूर पहुंच गए। यहां शायद रवि ठाकुर को एहसास हुआ कि वह जिस मुद्दे को सहजता से ले रहे है वह उतना सहज नहीं है। ग्राम सभा में इस मसले पर थोड़ी नोकझोंक भी हुई। अपने लोगों से जुडक़र अपनी विश्वनीयता को साबित करने के लिए मेरी जद्दोजहद जारी थी। बचपन में ही अपने इलाके में रहा, उसके बाद वर्षों तक मेरा जुड़ाव अपने इलाके से न के बराबर ही रहा। केलंग में बस जाने के बाद बहुत कम गांव या इलाके के सामाजिक आयोजनों में पहुंच पाता हूं। एकदम से एक संघर्ष के माध्यम से अचानक इलाके से जुड़ा। स्वाभाविक ही है कि मसले में कुछ लोग इस जुड़ाव का मकसद व मेरे एजेंडे की पड़ताल करते हुए संदेह भरी निगाहों से मेरी गतिविधियों पर सवाल तो खड़ा करेंगे ही। कुछ लोगों को मेरी सक्रियता खटक रही थी। किसी न किसी तरह से मुझे इस संघर्ष से बाहर करने की तैयारी होती रही। इस बीच सूचना मिली कि विस्थापित होने वाले पंचायत ने रवि ठाकुर की अगुवाई में जिस्पा बचाओ समिति का गठन कर लिया। संघर्ष समिति का दोफाड़ हो गया। रिगजिन को समिति ने महासचिव पद का ऑफर दिया जिसे रिगजिन ने शालीनता से ठुकरा दिया। इस स्ट्रोक के साथ संघर्ष से मैं बाहर हो गया। जिस उत्साह के साथ प्लानिंग कर रहे थे वह उत्साह ठंडा पड़ गया। संघर्ष का स्थान बचाओ ने ले लिया। आरोप यह भी लगे कि मैं संघर्ष में राजनीति कर रहा हूं। सक्रियता पर विराम देते हुए मैं भी चुप बैठ गया। जिस्पा बचाओ समिति का पंजीकरण किया गया। रिगजिन के ऑफर को ठुकराने के बाद मेरे गुरूजी अंगरूप ठाकुर को महासचिव का दायित्व दिया। विरोध का दौर इस बीच अगस्त माह में महामहिम दलाई लामा के जिस्पा दौरे के बजह से भी ठंडा पड़ा। पूरा दो पंचायत महामहिम के स्वागत व प्रवास की तैयारियों में जुटा रहा। मूक दर्शक बनना मेरी नियति थी। 


हां इतना जरूर है कि डीजीएम अमर लाल का फोन जरूर आया कि अजय जी हम आप से मिलना चाहते हैं आप केलंग में हमारे कार्यालय आएं। मैं ग्रामीणों के साथ ही कंपनी के लोगों से बात करना चाहता था ऐसे में उनके पास जाना मुझे मुनासिब नहीं लगा। यूं भी हम गुपचुप बातचीत का विरोध कर चुके थे, ऐसे में मेरा उनसे मिलना कई सवाल खड़े कर सकता था। इस बीच कुछ बुद्धिजीवियों ने संघर्ष को जारी रखने का आह्वान किया। अलग समिति के बैनर तले संघर्ष की रूपरेखा बन रही है। फिलहाल कोई ठोस निर्णय नहीं हो सका है। विस्थापित पंचायत की समिति बन चुकी है अब प्रभावित पंचायत को भी विरोध का बैनर तैयार करना है। कई दौर की बैठक हो चुकी है। इस बीच अक्टूबर माह में दशहरा के दौरान जिस्पा बचाओ समिति ने कुल्लू में दारचा पंचायत से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत अधिकारियों व कर्मचारियों के साथ बैठक की। कुल्लू में हुई इस बैठक में क्या हुआ उसकी अधिक जानकारी मुझे नहीं है, लेकिन समाचार पत्रों के माध्यम से पता चला कि बैठक के बाद महामहिम राज्यपाल को डेम के विरोध में ज्ञापन दिया। उसके बाद इस बैठक की जानकारी दारचा में दी गई, उसी बैठक में निर्णय हुआ कि डेम के विरोध में एकदिवसीय सांकेतिक अनशन केलंग में होगा। 3 नबंबर को 11 बजे जिस्पा बचाओ समिति ने 24 घंटे का अनशन आरंभ किया व 4 नबंवर को अनशन तोडऩे के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को डेम के विरोध में उपायुक्त के माध्यम से ज्ञापन प्रेषित किया। रिगजिन इस अनशन में जिस्पा बचाओ समिति के सदस्यों के साथ बैठे। दारचा में हुई अंतिम बैठक के बाद वे आश्वस्त थे कि आंदोलन को एकजुटता के साथ जारी रखा जाएगा। अंगरूप गुरूजी से हुई बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा जिस्पा बचाओ समिति छोटे भाई की भूमिका में होगी, असल लड़ाई तो जिस्पा बांध जन संघर्ष समिति के बैनर तले ही लड़ा जाएगा। दलील थी कि परियोजना प्रबंधकों के साथ जब नेगोसियशन की स्थिति आएगी तो विस्थापितों की अलग समिति की जरूरत पड़ेगी। अत: जिस्पा बचाओ समिति का गठन हुआ है।



मेरे सवाल अब भी जस के तस थे। उपसमिति पंजीकृत है और मुख्य समिति का अभी कोई अता पता नहीं है। जिस्पा बचाओ समिति का अध्यक्ष रवि ठाकुर है तो क्या जिस्पा बांध संघर्ष समिति के अध्यक्ष भी रवि ठाकुर ही होंगे? यदि उपसमिति का गठन करना था तो जिस्पा बांध संघर्ष समिति को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया? एक शोर गूंज रहा था कि जो शख्स अपने इलाके के संघर्ष को ही तोड़ गया तो उसकी विश्वनीयता क्या होगी? क्या छवि के डेमेज को कंट्रोल करने के लिए समिति व उपसमिति का ड्रामा चल रहा है? हास्यास्पद ही कहूंगा संघर्ष शुरू हुआ नहीं और समझौते की तैयारियां हो गई। बड़े बेआबरू हो कर संघर्ष से बेदखल हुए, अब क्या जबरन मुझे उस सूडो संघर्ष का हिस्सा बनना चाहिए? पूरा सीजन कंपनी के लोग बेधडक़ सर्वे करतेे हुए हमारी छाती पर दनदनाते रहे अब उनके जाने के बाद अनशन अटपटा ही था। यही कुछ सवाल थे जिसके चलते उस अनशन से दूर ही रहा। अजेय भाई संघर्ष के आरंभिक दौर से ही मुझे उत्साहित करते रहे हैं। निरंतर उनसे चर्चा होती रही। वह हमेशा कहते रहे प्रतिरोध के लिए लडऩे की नीयत चाहिए। फिलहाल वो प्रतिबद्धता उन्हें नहीं दिख रही है। उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि कंपनी की उपलब्धि है कि उन्होंने एक मैच्योर होते हुए जनसंघर्ष में बड़ी आसानी से फांक पैदा कर दी। लेकिन इस फांक के विरूद्ध भी तो संघर्ष किया जा सकता है। 

Monday, April 12, 2010

नौ साल बाद सैंज


डोडा विहाल 'नकली' गाँव!! 






मित्र ने शनिवार 10 अप्रैल को फोन किया। मोच आ गई है। क्या तुम बतौर ड्राईवर सैंज चल सकते हो? मैंने कहा ठीक है। इस वार्तालाप को मेरी पत्नी ने सुना। कहने लगी मैं भी चलूंगी। मैंने कह दिया ठीक है। रविवार को फिर फोन आए तो चलेंगे। पत्नी सुबह जल्दी ही तैयार हो गई। मैं बेपरवाह सोता रहा। फोन आ ही गया कि क्या तुम तैयार हो क्या? मैंने कहा आ जाओ, तुरंत तैयार हो जाऊंगा। मित्र के मारुति में सवार हुए हम और चल पड़े सैंज। नौ माह की बेटी साथ लेकर। इस बीच खोखण में भी उसे कुछ काम था। काम निपटा कर शुरू हुआ सैंज का सफर। लारजी के ट्रेफिक टनल पार कर मुड़ गए सैंज की ओर। करीबन नौ साल बाद सैंज जा रहा था। जब पहली बार गया था तो सड़कें तंग थी। अब एकदम नजारा बदल चुका है। कच्ची सड़क पर धूल उड़ाते डंपर, टिप्पर। धूल ही धूल। सड़क किनारे पेड़ों पर धूल की मोटी परत। धूल-धूसरित इलाका। धूल नियंत्रण के लिए परियोजना का पानी टैंकर। पर सब बेकार। तपती धूप में टैंकर से पानी की बौछार। रस्मअदायगी से अधिक कुछ नहीं। मित्र बोल उठा बरसात में कीचड़ और गर्मी में धूल। सब बेपरवाह काम जोरों पर है। बाईपास, पुल, सुरंग, मलबे से सिकुड़ी सैंज नदी। विकास हो रहा है। महत्वाकांक्षी बिजली परियोजना का काम है।

परियोजना की नवनिर्मित सुंदर बस्तियां। कच्चे मकान पक्के हो चुके हैं। सड़कों के किनारे भवन निर्माण जारी है। परियोजना से भला हो गया ग्रामीणों का भी। सड़कों का जाल बिछ रहा है। सड़कों के लिए कितने पेड़ कटे होंगे? अहसास हो गया। बदला हुआ सैंज घाटी। नौ साल बाद अलग ही सैंज जा रहा था। हल्की से चढ़ाई में हांफते ओवर लोडिड ट्रक। मलबे से भरे टिप्पर। मशीनों का ढेर। निर्माण कार्यों ने पहाड़ का 'तेल' निकाल दिया। यही देखते हुए चल रहा था। उत्सुकता हुई सैंज कस्बे का बाजार कैसा होगा? 
शलवाड़ पहुंच गए। काम जोरो पर है। सुरंग बन रही है। सड़क से सटे इस छोटे से गांव में दुकान बढ़ गए हैं। उड़ते धूल ने गांव की रंगत बिगाड़ दी है। आगे बढ़े। सड़क की निचली और एक गांव हुआ करता था। छानी नाला । 22-25 मकानों वाले इस गांव का नामोनिशान मिट गया। लाखों टन मलबे का ढेर। दब गया है वो गांव। मलबे के ढेर में बदल गया है ढलान पर बसा छानी गांव। डंपिंग साइट के लिए पूरा गांव उजड़ा। मलबे को बिछा कर बन रहा है मैदान। इस गांव के लोग कहां बसे? मेरे लिए यह सवाल ही रहा। हां, इतना जरूर है कि उन्हें पर्याप्त मुआवजा मिला होगा। अपने माटी से अलग होने की कीमत। मलबे के ढेर को बिछाते मशीनों का शोर। शायद उस गांव के बारे में सोचने का मौका नहीं देती।








                                 
मलबे के ढेर में दबा छानी नाला 


इस ढलान पर बसा था छानी नाला गाँव 






सैंज करीब आ रहा है। दिखने लगी है परियोजना की सुंदर, व्यवस्थित बस्ती। सैंज बाजार भी आ गया। कच्चे खोखे सीमेंट के पक्के मकानों में तब्दील हो चुके हैं। कीचड़ व धूल से कस्बे की सड़क खस्ता है। लग्जरी वाहन में घूमते स्थानीय युवा। बदले हुए स्टेटस सिंबल के साथ। कुछ खाने का मन हुआ। बाजार की हालत देख कर केले व संतरे खरीद कर ही संतोष कर लिया। सैंज से आगे जाना था हमें। रास्ते भर होती रही परियोजना व स्थानीय लोगों से जुड़े किस्सों की चर्चा। 
परियोजना के साथ संपन्नता आई। धड़ाधड़ वाहन खरीदे गए। अब वाहन को हांकने के लिए तेल के लायक जुगाड़ नहीं। सुना है कि एक परियोजना के अधिकारी का वाहन टायर पंचर हुआ। परियोजना में मजदूर बोला, 'ठहरो साहब! मैं अपनी गाड़ी ले आता हूं।' पूंजीवाद का धुंधला सा  चेहरा। सैंज घाटी में दिख रहा है। अमीर और अमीर हो रहा है व गरीब की हालत बदतर हो रही है। सैंज से आगे बढ़ते हुए मित्र बोला नदी के पार गांव देख रहे हो? छोटा शिमला! स्ट्रक्चर बने हुए हैं लकड़ी के। मकान जैसे दिखते है। मात्र मुआवजा बटोरने के लिए रातोरात खड़े किए गए हैं। उपर की मंजिल जानवर को फांसने के लिए बिछे जाल से कम नहीं। ऊपर गए तो धड़ाम। सुना है कि परियोजना में मुआवजे का गड़बड़झाला है। 
मेरे लिए हैरतअंगेज था कि मकान भी 'चोरी' हो जाते हैं। इधर, खड़ा किया नहीं और उधर कोई और पूरा का पूरा उड़ा ले गया। उसी मेटेरियल का इस्तेमाल। अपना मकान खड़ा। हल्फनाफे देकर खड़े हो रहे हैं मकान। जमीन किसी की, मकान किसी और का। हल्फनामे के ऐवज में मिल जाता होगा 'कुछ'। पता नहीं, कितना? मकान बनाने वाले को तो मिलने वाली रकम का करना होता है इंतजार। लगता है मकान माफिया खूब बटोर रहा है। हम आगे बढ़ ही रहे हैं। मित्र का कोई इंतजार कर रहा है। 
इस बीच डेम साइट तक पहुंच गए हैं। काम चल रहा है। पोकलेन मशीन, जेसीबी गरज रहे हैं। टिप्परों में मलबा लोड हो रहा है। पहाड़ को बेरहमी से नोच रहे हैं पोकलेन मशीन। कलयुगी 'दैत्य'! डेम साइट के आसपास की पहाड़ी पर सीमेंट की ग्रोटिंग हुई है। नई तकनीक से सीमेंट का छिड़काव। सीमेंट की बौछार पड़ते ही जैसे वनस्पति को बोल दिया हो 'स्टेच्यू'! और वनस्पति सदा के लिए स्टेच्यू। जैसे पौराणिक कथाओं में होता था छूते ही इंसान पत्थर। मुझे लगा उस पहाड़ी की वनस्पति की बेहरहमी से 'हत्या' हुई है। अब वो कोख हमेशा के लिए बंजर हो गई है। डेम के बनते ही पानी में डूबा होगा 'वो' हिस्सा। 
डेम साइट से निकलते ही आगे दो रास्ते थे। एक रास्ता न्यूली जाता है और दूसरा पुल पार कर रैला। जो मुझे नहीं पता था। हम पुल पार कर आखिर पहुंच गए जहां मित्र को जाना था। मित्र बोला सामने गांव देख रहे हो। डोडा बिहाल है। गौर से देखा तो हैरत में था। सुंदर सा दिखने वाला गांव पूरा 'नकली'। 40-50 मकान बन गए हैं। सलीके से रंग-रोगन हुआ है। किसी भी मकान में शीशे नहीं है। कोई नहीं दिख रहा। भरा-पूरा गांव, रहने वाले कोई नहीं। बताया कि यह मुआवजे का खेल है। परियोजना इस स्थल को भी अधिग्रहित कर रही है। मकान बना हो तो मुआवजा अधिक मिलेगा। लकड़ी के मकानों की कीमत ही अलग है। नजदीक से देखा तो इतने बड़े गांव में कुछ लोग दिखे। शायद उस छोटे से गांव के मूल निवासी होंगे। अब गांव का आकार बढ़ गया। 
सब पैसा है। ऐसा ही चलता है। परियोजना के समंदर से बूँद निकल जाए तो किसी को क्या फर्क? और इस सब से मेरे पेट में दर्द क्यों? खैर मित्र को कुछ काम निपटाना था। इतनी देर बैठे रहने का मतलब नहीं था। सो मैंने कहा, 'मैं न्यूली तक जा आता हूं।' मैं कभी न्यूली नहीं गया था। न्यूली से आगे शांघड जैसा खूबसूरत इलाका है। तस्वीरों में देखता रहा हूं। मित्र ने कहा, 'शांघड़ नहीं पहुंच पाओगे। सड़क न्यूली तक ही है।' मैंने कहा' 'कोई बात नहीं मैं न्यूली तक ही जा आऊंगा परिवार के साथ। फिर क्या पता मौका मिले या न मिले।' हामी भरी और चल पड़े न्यूली की ओर। मालूम न था कि किस दिशा में है न्यूली। दो किलोमीटर के बाद किसी से पूछा। न्यूली कितनी दूर है? उसने कहा, 'जनाब आप गलत आ गए है। जिस पुल को पार किया उसी पर वापस जाते हुए दूसरी सड़क पकड़ो। इस सड़क से तो आप रैला पहुंच जाएंगे।'
 इतना आ जाने के बाद लौटने का मूड नहीं हुआ। सोचा चलो रैला ही देख आते हैं। चल पड़े आगे। परियोजना के निर्माण में इतनी सड़के बन चुकी हैं कि पक्का नहीं था कि मैं रैला पहुंच पाऊंगा या नहीं। सड़कों की भूलभुलैया...कोई साइन बोर्ड नहीं! कौन सी सड़क कहां जा रही है? पहाड़ पर सड़क दूर से लकीर जैसी दिखती है। पहाड़ पर खींची लकीरें बता रही हैं कि शिद्दत से पहाड़ का सीना छिला गया है। जंगल साफ हुए, पहाड़ काटे गए। सैंज में परियोजना की कई सुरंगें बन रही हैं। पहाड़ जगह-जगह से छिद रहे हैं। उस सड़क के साथ बिजली की बड़ी लाइन भी जा रही है, लेकिन कहां, पता नहीं! परियोजनाओं के निर्माण के साथ टावर लाइन बिछेगी। तभी तो रोशन होंगे मैदान बड़े-बड़े शहर। पहाड़ में परियोजनाओं का निर्माण गति पकड़ रहा है। एक समय ट्रांसमिशन लाइन के टावरों से पहाड़ पट जाएगा। सच भी है। मैदानी इलाकों में संसाधनों का दोहन हो चुका है। अब पहाड़ की बारी है। क्या विकास ऐसी तबाही लाती है?
 ब्लैक टॉप सड़क पर गाड़ी दौड़ रही है। विकास के उस मंजर से अलग बावडिय़ों में कपड़े धोती महिलाएं, नहाते बच्चे। शायद विकास से अनभिज्ञ या जानकर भी बेबस। नदी-नालों के किनारे बने परंपरागत घराट अतीत की बात हो गई। पहले पिसता था आटा और मेल-मिलाप भी हो जाता था। मेरे पत्रकार मित्र बताते हैं कि इन घराटों में कई जोड़े मिलते थे और गृहस्थी बस जाया करती थी। अब परियोजना के बड़े घराट लगेंगे जो अपनी रगड़ से बिजली पैदा करेंगे। दुर्गम गांवों के मकानों के छत पर डिश एंटिना दिख रहे हैं। मोबाइल के टावर भी। कंपनियों की सुविधा। भला ग्रामीणों का भी। दुर्गम इलाके में परियोजनाओं के बहाने सड़क बन गई है। कभी स्वप्र ही रहा होगा ग्रामीणों के लिए। पैसे की ताकत क्या नहीं कर सकती? अहसास हो रहा है। 
गाड़ी रोक राहगीर से पूछ ही लिया रैला कितना दूर है? बोला, 'आगे दो रास्ते आएंगे आप सीधे जाने की बजाए मुड़ जाएं। रैला सुंदर गांव है व एक मंदिर भी है।' गांव के नजदीक पहुंच तो गया लेकिन देखा सड़क आगे जा रही है। सोचा संभव है सड़क गांव तक ही हो। इस आस बढ़ चला। देखा सड़क गांव के बाहर से निकल रही है। गांव के ठीक ऊपर पहुंच गया। जहां एक वाहन में ग्रामीण रोजमर्रा की वस्तुएं व राशन लाए हैं। सड़क से गांव तक लंबी स्पेन लगी है। स्पेन में लाद कर राशन गांव तक भेजा जा रहा है। रैला हरा-भरा सुंदर व फैला हुआ गांव। नजदीक ही जंगल। राशन वाले एक बुर्जुग से पूछा तो बताया कि सड़क परियोजना की सर्ज शाफ्ट तक है। गांव में अभी सड़क नहीं पहुंची है।
 रैला के इसी स्थान से ही सैंज परियोजना के पावर हाउस में पानी गिराया जाएगा। कहने का तात्पर्य डेम साइट के ठीक ऊपर है रैला। गांव के नीचे से भूमिगत सर्ज शाफ्ट की सुरंग बन चुकी है। भूमिगत सुरंग ने गांव में पानी के स्रोतों को सोख लिया है। सुरंग के बनने के बाद गांव में पानी की किल्लत हो गई है। प्राकृतिक स्रोत सूख रहें हैं। अब पेयजल लिफ्ट किया जा रहा है। गांव के बीचों बीच भव्य स्थानीय शैली का भवन दिखा। पूछा तो पता चला लक्ष्मी नारायण का मंदिर। गांव में एक हाई स्कूल है। कुछ देर रूक कर आसपास का नजारा लेता रहा। उस ऊंचाई पर खड़ा था जहां से दिख रही थी सामने की हरी-भरी पहाडिय़ां व वहां बसे गांव। घने जंगल, लहलाते खेत बागीचे, बर्फ से लदे पहाड़। नजरें दूर-दूर तक जा रही थी। अद्भुत था नजारा। अहसास ही नहीं होता कि नीचे पहाड़ का सत्यानाश हो हो रहा है। विकास की कीमत तो चुकानी पड़ेगी। रैला से सुकून देने वाले पहाड़ देख कर लगा कि मैं कोई भयानक स्वप्र देखकर जागा हूं। पहाड़ की तबाही मेरे भ्रम से अधिक कुछ नहीं। 
नजारा देख कर लगा पहाड़ बेखबर हैं कि उसके शरीर के कुछ हिस्सों को बेदर्दी से छिला गया है। मशीनों से नोचा जा रहा है। कई छेद हो गए हैं। फोन की घंटी बजी। मित्र ने कहा, 'काम निपट चुका है।' परियोजना के सर्ज शाफ्ट तक नहीं पहुंच सका। तुरंत वापस चल पड़ा। मित्र न्यूली रोड पर इंतजार कर रहा था। उसे लगा कि मैं न्यूली से लौट रहा हूं। उसे पिक करने के बाद फिर से उसी भयानक दुनिया में लौट आया। सुबह आए थे नाश्ता करके, वापसी करते हुए डेढ़ बज गए। भूख लगने लगी। मित्र ने कहा कि सैंज से निकलकर औट के आसपास भोजन कर लेते हैं। धूला हुआ वाहन सैंज के लगभग 40 किलोमीटर उबड़ खाबड़ सड़क पर दौडऩे के बाद धूल से सन गया था। 






                                                   लारजी डेम 

मारूति लारजी ट्रेफिक टनल के बाद सांय-सांय दौड़ रही थी। पत्नी बोल उठी, 'अब लग रहा है कि पैदल चल रहे हैं।' औट से कुल्लू की तरफ सुंदर से रेस्टोरेंट में रूके। नदी के किनारे बने रेस्टोरेंट में जम गए। भोजन का आर्डर दे दिया। बीयर की चुस्कियां भी ले ली। घर पहुंचे। सफर की थकान मिटा ली। फोन उठाकर केलंग अजेय भाई से बात की। मैंने उन्हें बताया कि अभी-अभी सैंज का दौरा करके आया हूं पूरे नौ साल बाद। उन्होंने पूछा' 'क्या देखा?' तो मैंने कहा, 'मानों एक दुस्वप्र में से बचा कर खुद को बाहर निकाल लाया हूं। क्या लाहुल भी एक दिन सैंज बन जाएगा?' परियोजनाओं से कुल्लू की गत बना दी है। क्या अब लाहुल की बारी है? रोहतांग टनल, पाइप लाइन में दर्जनों जल विद्युत परियोजनाएं, प्रस्तावित रेल लाइन...आज जो लाहुल है वो ऐसा रह पाएगा? इन चर्चाओं के बाद वह बोले अजय तुमने मेरी 'रोहतांग टनल' कविता पढ़ी है....'पहाड़, क्या तुम छिद जाओगे?'  

Monday, March 8, 2010

गोच़ी- पुत्र उत्सव







जिला मुख्यालय केलंग सहित लाहुल के चार पंचायतों के दो दर्जन से अधिक गांव गाहर घाटी के तहत आते हैं। भागा नदी के आर-पार बसी आबादी की अलग बोली, अलग संस्कृति है। चार पंचायतों में नौ गोंपा बने हैं। इन मठों में कारदंग व शाशुर गोंपा की मान्यता सर्वाधिक है। लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं बावजूद इसके कई आयोजन ऐसे हैं जिनका बौद्ध धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन आयोजनों से झलकता है कि बौद्ध धर्म इस इलाके में बहुत बाद में आया है। ऐसे आयोजनों से इस जनजाति की जड़ें सहज ही अन्यत्र होने का संकेत दे देती है। बर्फ की झक सफेद चादर वाले वातावरण में रंगीन पोशाकों में सजे-धजे ग्रामीण अलग ही तरह का इंद्रधनुषी अहसास से भर देते हैं। पुत्र पैदा होने की खुशी व ग्रामदेवता का आभार व्यक्त करता त्यौहार इस घाटी की अलग पहचान है। मान्यता है कि ग्राम देवता के आशिर्वाद से परिवार में हुए लड़के का जन्म पूरे समुदाय को मजबूती देने के लिए हुआ है। लड़की के जन्म पर इस प्रकार का आयोजन नहीं होता। उत्सव मुख्यत: पुत्र के जन्म पर उल्लास,आभार व खुशी को बांटने से जुड़ा है। शक्तिशाली लोकदेवता व ग्राम देवता वाले गांवों में हर वर्ष अनिवार्य तौर पर इस उत्सव का आयोजन होता है। गांव में लड़के का जन्म न हो तो भी ग्राम देवता के सम्मान में कुछ गांवों में आयोजन ग्रामीण मिल कर करते हैं। उन गांवों में प्यूकर, कारदंग, सतींगरी, रांग (अप्पर) केलंग, यो (लोअर) केलंग व बिलिंग ऐसे गांव हैं जहां हर वर्ष आयोजन होता है। पुत्र का जन्म हो तो संबंधित परिवार अन्यथा ग्रामीण मिलकर आयोजन में होने वाले खर्च को वहन करते हैं। कुछ गांवों में पुत्र जन्म न होने पर आयोजन स्थगित कर दिया जाता है। केलंग व कारदंग में गोच़ी का आयोजन देख चुका हूं। यह बात रोचक है कि पूरे इलाके की एक बोली होने के बावजूद आयोजन की विधि थोड़ी बहुत बदल जाती है। कारदंग में भोजपत्र पर कालिख से याक बनाया जाता है जबकि केलंग में खुलच़ी (मेमने की खाल में भूसा भर कर) उस पर तीरंदाजी की जाती है। 




                      गोची के लिए तैयारी  


केलंग व कारंदग गोची अपने ब्लाग में सहजने का प्रयास कर रहा हूं। वर्ष के भीतर (एक आयोजन से दूसरे आयोजन तक) जन्म लेने वाले लड़के के जन्म पर ग्राम देवता का आभार व्यक्त करने का चलन है व इसी त्यौहार को गोची कहा जाता है। हर वर्ष इसका आयोजन होता है। गांव में किसी वर्ष कोई लड़का जन्म न ले तो ग्रामीण सामूहिक तौर पर ग्राम देवता के प्रागंण में इस आयोजन की औपचारिकता पूरी करते हैं। कभी वर्ष भर में पांच परिवारों में लड़के का जन्म हो तो आयोजन पांच घरों में चलता है। इसी प्रकार एक ही परिवार में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई हो तो आयोजन एक ही घर में चलता है। संबंधित परिवार के रिश्तेदार व ग्रामीण आयोजन में शिरकत करते हैं। रांग केलंग में कुकुजी परिवार को लबदक (पुजारी) परिवार माना जाता है। आयोजन की शुरूआत उस घर से होती है जिस घर में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है, वहां ग्रामीण इकत्रित होते हैं व ग्रेक्स (पारंपरिक गीत) का गायन करते हुए गोची की औपचारिक शुरूआत करते हैं। गोच़ी की पूर्व रात्रि पर लोअर केलंग का थास परिवार जोकि संबंधित ग्राम देवता के लबदक हैं नगाड़े के साथ अप्पर केलंग पहुंचता है तथा अप्पर केलंग का थमस परिवार हालडा बना कर उस दल का स्वागत करते हुए अप्पर केलंग के ग्राम देवता के परिसर तक ले जाता है। दोनों ही ग्रामों के ग्रामीण पूजा अर्चना के बाद अपने-अपने देवताओं के प्रतीक चिन्ह (रंगीन या सफेद कपड़े का टुकड़ा) बदलते हैं। इसी के साथ लोअर केलंग का दल वापस चला जाता है। इसी के साथ गोच़ी की औपचारिक शुरूआत होती है। अप्पर केलंग के ग्रामीण किसी एक युवा को लाऊपा का दायित्व देते हैं। 
लाऊपा का काम कनिसका (देव प्रागंण) में रात भर आग जलाकर रहने का होता है तथा पूरी रात आग को बुझने नहीं दिया जाता। इस बीच लबदकपा बारी-बारी से उन परिवारों में जाता है जहां पुत्र जन्म हुआ है। लबदकपा दोलम (नगाड़ा) की गूंज के साथ ग्रामीण साथ चलता हैं। घर में सभी का सत्कार होता है। लबदकपा को पारंपरिक वेशभूषा व आभूषणों से लदी सजी कलचोरपा स्थानीय फूलों को गुच्छा भेंट करती है। कल्चोरपा के लिए नियम है कि वे फमाछांई (मां-बाप जीवित) हो। उसके बाद लकड़ी के परात में सत्तू का लिंग बनाया जाता है। सत्तू को पानी में हल्वे की तरह पकाया जाता है। लिंग का आकार बनते ही उसमें अंगुलियों से छेद करके नमक व मक्खन भरा जाता है। बने हुए लिंग को फोकेन कहा जाता है। फोकेन को गांव के युवा कनिसका तक पहुंचाते हैं। खुलची (मेमने की खाल में भूसा भरा जाता है व मेमने जैसा ही दिखता है) बनाया जाता है जिसे लाऊपा उठाता है। गांव में जन्में पुत्रों की संख्या के अनुसार खुलची बनाया जाता है। संबंधित परिवार में एक ही खुलची बनता है। एक हल्डापा होता है उसे महिलाओं के पारंपरिक आभूषणों से सजाया जाता है। निश्चित अवधि में जलूस घर से निकलता है। सबसे पहले हाल्डापा उसके पीछे फोकेन उठाए युवा। कल्चोरपा व परंपरागत आभूषणों से लदी नवजात शिशु की मां। फोकेन उठा कर चलने वाले मित्र जमकर अश्लील वचनों का गान करते हैं। शिशु के मां व बाप पर खूब अश्लील फब्तियां कसते हैं। कनिसका में ग्रामीण हर घर से सिंचाई के पानी के हक के अनुसार मक्खन के मूर व मारकेनची बना कर लाते हैं। इस बीच नवजात कन्या को ढूंढ कर लाया जाता है। सांकेतिक विवाह की प्रथा पूरी की जाती है जिसे गोची बागमा कहा जाता है। गोची बागमा का दुल्हा लोऊपा होता है। उसके बाद फोकेन व मूर का भोग ग्राम देवता को चढ़ाता है। भोग चढ़ाने के बाद उसे ग्रामीणों में बांट दिया जाता है। गोच़ी बाकमा की नवजात दुल्हन को मूर व फोकेन का कुछ अधिक भाग दिया जाता है। इस प्रक्रिया के संपन्न होने के बाद ग्रामीण कुकुजी परिवार में मौजूद केलिंग बजीर के लाखांग ( देवालय) में एकत्रित होते हैं तथा ग्रेक्स का गायन करते हुए ग्राम देवता की अर्चना करते हैं। ग्रामीणों को अरग-छंग परोसा जाता है। नगाड़े बजते हैं। तीरकमान तैयार किया जाता है। बहुत बड़ा हल्डा (मशाल) तैयार होता है। ग्रेक्स का गायन संपन्न होते ही परंपरागत पूजा अर्चना के बाद मशाल जलाकर लबदक पा को ससम्मान कनिसका लाया जाता है। लबदकपा पुराने काले शाल के नीचे  तीरकमान को ढक कर लाता है। खुलची को निश्चित स्थान पर रखा जाता है। नर-नारियों की खूब भीड़ होती है व अश्लील वचनों का क्रम चलता रहता है। पूरी पूजा के बाद लबदकपा एक शुगशुग तीर दक्षिण दिशा की और छोड़ता है। उसके बाद खुलची पर निशाना साधने का काम शुरू हो जाता है। तीरदांजी सिर्फ लबदकपा ही करता है। ग्रामीणों में मान्यता है कि जितने तीर खुलची पर लगेंगे अगले वर्ष उतने ही पुत्र गांव में होंगे। तीरंदाजी के क्रम के बाद खुशी मनाते हुए ग्रामीण कनसिका में पहुंचकर शैणी नृत्य करते हैं। इस नृत्य में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती। उसके बाद गोच़ी के उपलक्ष में संबंधित घरों में होने वाले खान-पान व नाच-गान के आयोजन में शामिल होते हैं। लोअर केलंग में आयोजन हल्का सा भिन्न है।
 कारदंग में फोकेन को पकाने की बजाए पानी से गूंदा जाता है। लिंग आकार तैयार होते ही उसपर मक्खन से कुछ आकृतियां बनाई जाती है व लिंग के उपर मारकेनचि (मक्खन का बकरा) रखा जाता है। कारंदग में लबदकपा के दो परिवार हैं। गोच़ी की शुरूआत में ग्रामीण नगाड़े के साथ पहले छोटे लबदकपा के घर जाते हैं व उनके घर में पूजा की औपचारिकता के बाद छोटे लबदकपा को लेकर बड़े लबदकपा के घर जाते हैं। मुख्य लबदकपा के घर तीरकमान की पूजा होती है। घर से निकलने से पूर्व घंडाड व ग्राम देवता तंगजेर की अर्चना होती है। उसके बाद लबदकपा गोची के अनुरूप घरों में पहुंचता है। ग्रेक्स का गायन होता है। ग्रेक्स के गायन के अनुसार ही भोजपत्र पर कालिख से याक का चित्रण होता है। पांच घर में गोची का आयोजन हो तो पहले घर में याक का लिंग बनता है व अंतिम घर में याक पूरा आकार लेता है। एक घर से दूसरे घर में जाने के लिए ग्रामीण लबदकपा को खूब मनाते हैं। बारी-बारी से एक-एक को मनाया जाता है। बड़े लबदकपा को मनाने में काफी समय लगता है। हर घर में शुर,जौ व ऊन भोजपत्र की छोटी-छोटी पोटली में बांधा जाता है। इसे भरने का काम छोटा लबदकपा करता है। तमाम घरों में ग्रेक्स के गायन के बाद दोनों लबदकपा घरों से मिले शुर,जौ व ऊन लेकर देवता से संबंधित एक खेत में पहुंच कर भोग चढ़ाते हैं। उसके बाद वापस आकर हर घर से पूरे जलूस व अश्लील वचनों के गान के साथ फोकेन कनिसका में लाया जाता है। पूजा अर्चना का क्रम चलता है। उसके बाद बर्फ के ढेर के उपर लकड़ी के गट्टर रख कर भोजपत्र पर चित्रित याक को रखा जाता है व उसपर 
तीरंदाजी होती है। तीरंदाजी के बाद कनिसका में आकर सामूहिक नृत्य होता है व भोग चढ़ाया जाता है।
    

लब्दाग्पा पहुँच गए घर!



काल्चोरपा लब्दाग्पा को फूल देने को तैयार!



लब्दाग्पा फूल लेते हुए.



फूल अन्य मेहमानों को भी.




फ़ोकेन तैयार



छंग-अरग से भरे बर्तन.



फ़ोकेन उठाइए, चलो कानिस्का!



हल्डापा और कालछोरपा


पीठ पर बेटा, परम्परा का निर्वाहन 

मूर के साथ गाँव की महिलाएं 




चढ़ा मूर व फ़ोकेन का भोग 



केलिंग बजीर का लखांग 



लखांग में लब्दाग्पा


लखांग में ग्रेग्स गायन करते ग्रामीण 




बज उठे नगाड़े 



तीरकमान के साथ लब्दाग्पा 


निशाना साधते हुए लाब्दाग   


केलंग में गोच़ी के बाद गमच़ा का आयोजन होता है। गमच़ा गोची से जुड़ा व उसके बाद का आयोजन है व तिब्बती कलेंडर के चुरगु  (19 तारीख) के बाद गमच़ा का आयोजन नहीं होता। केलिंग बजीर के लाखांग वाले कुकुजी परिवार में पत्थर की चक्की होती है, जिसमें जौ के भुने हुए दानों को पीसा जाता है। यह सत्तू से अलग होता है व इसे दरे कहा जाता है। गमच़ा के दिन तीन स्थानों में पूजा की जाती है। गमच़ा में दो युवा शेपा बनते हैं जो पूजा के लिए गांव से ऊपर जाते हैं। अरग व दरे का भोग लगाते हैं व दूसरा ग्रुप केलिंग बजीर के लाखांग में भोग लगाते हैं व तीसरा ग्रुप लगजोमजी परिवार के खेत में एकत्रित होता है दरा को गूंध कर नौ छंगपा दांये हाथ की  में निचोड़ा गया बनाता है। दिन ढलते ही छोद के आवाज के साथ तीनों ग्रुप भोग चढ़ाते हैं। उसके बाद दोनों शेपा गायब हो जाते हैं व गांव में नवविवाहित जोड़ों के घर जाते हैं। नवविवाहित परिवार के परिजन ग्रामीणों को सूचित करते हैं कि शेपा उनके घर में हैं तो ग्रामीण इकत्रित होकर उसी घर में जुट जाते हैं। ग्रामीण ग्रेक्स का गायन करते हैं। ग्रेक्स में नवविवाहित जोड़े को पुत्र प्राप्ति की कामना की जाती है।  
#इस पोस्ट के लिए शरब कुकुजी व छेरिंग अंग्चुक 'चेपा' अताजी केलंग का आभार



Wednesday, February 3, 2010

फसल व उर्वरता का पर्व 'योर'

योर लाहुल का आदि पर्व है. लाहुल के कई गाँव में योर का आयोजन होता है. आयोजन को देख कर सरसरी यह लग सकता है कि योर मुखौटे पहन कर कुछ परम्परागत रस्मों की अदायगी के साथ मनोरंजन का ही माध्यम है, किन्तु योर को फसल व संतति का त्योहार माना जाता है. हास-परिहास का तत्त्व इस आयोजन में चरम पर होने के साथ अश्लील चेष्टा व वचनों का प्रयोग होता है. निशाण, दोलम, दमन ( नगाड़ा), पाउन, पीतल की बांसुरी, झांझे (सिंबल) योर के दौरान व समापन पर बजाये जाते हैं तथा शेणी नृत्य होता है. योर के अनुष्ठान में हल चलाने से लेकर फसल भंडारण की प्रक्रिया नृत्य की मुद्राओं से दर्शाई जाती है, मौसम व फसल की विस्तृत भविष्यवाणी होती है तथा सम्भोग व प्रजनन की प्रक्रिया अभिनीत की जाती है. आयोजन में असुर संस्कृति की झलक मिलती है, नाग, लिंग व अन्य देवताओं की पूजा होती है. लाहुल की भाषा-बोली में विविधता के साथ जीवनशैली व संस्कृति बदलती है, योर में सहज ही इस विविधता का असर दिख जाता है. पटन में मुखौटा नृत्य को 'मोहरा गारफी' व गाहर में 'बग क्योरिस' कहा जाता है तथा गाहर में योर रात में व पटन में दिन को खेला जाता है. गहार में मुखौटों के साथ शामिल होने वाले सात सदस्यों को शमारची या चौरो व पटन में सुरजणी कहते हैं. योर के मुखौटों की बनावट व आयोजन से स्पष्ट है कि योर बौद्ध पूर्व संस्कृति का अवशेष है. मुखौटे बौद्ध छम नृत्य की तरह कलात्मक न हो कर साधारण लोकशैली में बने होते हैं. योर के सन्दर्भ में लाहुल के संस्कृतिकर्मी व प्रखर कवि अजेय ने लाहुल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र 'गरजा पिति यरज्ञा न्यूज़' के पहले अंक में 'योर उत्सव के प्रकाश में प्राचीन लाहुल की संस्कृति' शीर्षक के तहत अपने लेख में विस्तार से योर के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की है. उनका कथन है कि 'योर उत्सव उस संस्कृति का अवशेष है, जो आर्यों का वर्चस्व बढने से बहुत पहले उतरी भारत के मैदानों में द्रविड़, कोल, किरात, खश, नाग आदि जनजातियों की साझी संस्कृति थी. लाहुल में ये अनार्य संस्कृति काफी देर तक जिन्दा बची रही, क्योंकि प्राचीन लाहुल का संपर्क बाहरी दुनिया से न के बराबर था.ऐसा प्रतीत होता है कि लाहुल में उर्वरता सम्बन्धी आदिम सम्प्रदायों का भी प्रभाव रहा है.' मुखौटे योर के दिन ही नियत स्थान से बाहर निकाले जाते हैं तथा योर खत्म होने के बाद मुखौटों को नहीं देखा जा सकता है.  हालडा या कुं के बाद योर पूरे लाहुल के छह गाँव में आयोजित किया जाने वाला उत्सव है. कुछ गाँव में योर बीते ज़माने की बात हो गई है. अब इसे बदलाव कहें या स्थानीय स्तर की विवशता, उस दौर के बड़े सांस्कृतिक या राजनीतिक केंद्र रहे तीन गाँव में ये आयोजन बंद हो गया है. जबकि छह गांवों में ये आयोजन यथावत है.इन गांवों में देव प्रकोप से बचने के लिए लोगों ने इस पर्व को जिन्दा रखा है.तीन आयोजन (त्रिलोकीनाथ,मडग्रां व उडगोस) में गुर की भूमिका होती है.जोबरंग में भविष्यवाणी मुखौटाधारी संकेतों में ही करते है.(# गुर देवी या देवता द्वारा चुना प्रतिनिधि, जिसके शरीर में प्रवेश कर जनसामान्य से देवता मुखातिब होते हैं) 

 बौद्ध बहुल तोद वेली के खंगसर में (पहला योर) ठाकुर परिवार वर्ष में दो बार (समर, विंटर) योर का आयोजन करता था,जिसे 'छोद्पा' कहते थे. ठाकुरों के अधीन पूरा कोलंग कोठी इस आयोजन में शामिल होता था. विभिन्न प्रकार के मुखौटे ठाकुर परिवार के पूजा कक्ष में हैं तथा आज भी वर्ष में दो बार ही नियत तिथि को उस कक्ष का दरवाज़ा खुलता है तथा पूजा की औपचारिकताओं के बाद कक्ष बंद कर दिया जाता है. ठाकुरों की जागीरदारी का अंत होने के बाद अब उनके वंशज सरकारी सेवाओं व अन्य कारणों से अपने पुश्तेनी घर में कम ही रहते हैं तथा अब पुश्तेनी मकान की देखरेख चौकीदारों के सुपुर्द है.ऐसे में छोद्पा आयोजन सहज नहीं है. ठाकुरों के पास मौजूद मुखोटों के बारे में कहा जाता है कि ये मुखौटे तोद के ही जिस्पा गाँव से लाये गए थे. जिस्पा के ग्रामीण मुखौटे पहन कर खंगसर आते थे, एक बार मुखौटाधारी टोली तेथबकुरकुर नामक स्थान पर हिमस्खलन की चपेट में आ गयी. उसके बाद जागीरदार ने फरमान सुना दिया कि मुखौटे अब खंगसर में ही रखे जायेंगे. 
दूसरा आयोजन गाहर के 'पयूकर व प्यसो'' गाँव में होता है. गाहर घाटी के अराध्य देव 'तंग्जेर व डबला' देवता के गाँव में होने वाले इस आयोजन में दूसरे गाँव के लोग शिरकत नहीं करते हैं. साल में एक बार हालडा के दो दिन बाद होने वाले पांच दिवसीय आयोजन में दो लकड़ी के मुखौटों (नर व मादा) को निकाला जाता है. इन मुखौटों को पूरे साल तंग्जर देवता के मंदिर में बने कक्ष में रखा जाता है. योर में दो मुखौटाधारी के साथ सात अन्य लोग जो शमारची कहलाते हैं, भी शामिल होते हैं तथा नृत्य में ही पूरे खेत में हल चलाने से लेकर फसल कटने तक का स्वांग करते है. पयूकर देव बंदिशों से भरा गाँव है. हालडा के दौरान गाँव में प्रवेश करने पर दंड स्वरुप देवता को सत्तू का 'ब्रंगेस' चढ़ाना पड़ता है तथा उत्सव के कुछ निश्चित अवधि तक गाँव के नियमित रास्ते पर चलना  सभी के लिए प्रतिबंधित होता है. ये प्रतिबन्ध तब उठता है जब बरबोग ठाकुर परिवार का सदस्य कुंस खत्म होने के बाद पहली बार गाँव आता है. 
तीसरा आयोजन जिला मुख्यालय केलंग के पार कारदंग गाँव में होता है, जिसकी चर्चा इस पोस्ट में फोटो के साथ करने जा रहा हूँ, यहाँ शमारची को चौरो कहा जाता है.
चौथा आयोजन प्राचीन लाहुल के सबसे बड़े सांस्कृतिक केंद्र गौशाल गाँव में होता था. तांदी संगम के साथ बसे इस गाँव में सनातन धर्म की ऐसी बयार आयी कि उसने तमाम पुरातन कड़ियों को उड़ा कर रख दिया.कहा जाता है के यहाँ लकड़ी के साथ एक लाल रंग का व कुछ सफ़ेद शंख के मुखौटे होते थे, जिसे बहुत पहले ग्रामीणों ने जमीन में गाढ दिया था. गौशाल के पुराने सांस्कृतिक आयोजन अब लोकगीतों में ही झलकते हैं. लोकगीतों से जाहिर होता है कि उस दौर में गौशाल के आयोजन कितने भव्य व रोचक रहे होंगे. गाँव की आराध्य देवी 'तिल्लो' का डेहरा (स्थानीय बोली में मंदिर) सनातन मंदिर में तब्दील हो गया तथा 'घंडाड' का डेहरा बौद्ध धर्म के प्रभाव के साथ गोम्पा बन गया. 'घंडाड' की मान्यता गाहर में योर के दौरान जबकि इसके आधीन तांदी कोठी में हालडा सहित कई उत्सवों में दिखती है. इसी कोठी के मूलिंग गाँव में भी योर के आयोजन की बात होती है, वर्तमान दौर में बुजुर्गों को भी याद नहीं है कि आयोजन में क्या होता था, सिर्फ इतना ही बताते हैं कि गाँव में इस आयोजन को 'पौरी' कहा जाता था. 
पांचवां आयोजन पटन क्षेत्र के शान्शा गाँव में होता था, यहाँ भी कहा जाता है के पचास के दशक में लकड़ी व ताम्बे के मुखौटों को नदी में बहा दिया गया. इस गाँव के आयोजन का विस्तार से वर्णन लाहुल की सांस्कृतिक पत्रिका चंद्रताल में स्वर्गीय आचार्य प्रेम सिंह शौंडा ने अपने लेख में किया है. 
छठा आयोजन शान्शा के पार जोबरंग गाँव में होता है. गंग्मी (नर) व मेच्मी(मादा ) मोहरा इस आयोजन के अंतिम दिन वर्ष भर की फसलों, बर्फबारी, बीमारियों व विपदाओं को लेकर विस्तृत भविष्यवाणी करते हैं. ग्रामीणों की मान्यता है के इस आयोजन को बंद नहीं कर सकते. एक बार ये आयोजन नहीं हुआ, उसी वर्ष पूरा गाँव हिमस्खलन की चपेट में आ गया था. उस घटना के बाद नियमित योर का आयोजन ग्रामीण करते हैं.
 सातवाँ आयोजन त्रिलोकीनाथ गाँव में होता है.तीन दिन के इस आयोजन में लगभग डेढ़ मंजिल ऊँचा  बर्फ का राश बनाया जाता है. इस दिन को सवा ट्रीक्टी  कहा जाता है. पहले दिन को क्वाची (छोटा)योर कहा जाता है.सुबह जोगनियों व बुरी शक्तियों  को खदेड़ने  के लिए सुरगी का आयोजन होता है.उसके बाद ग्रामीण ठाकुर परिवार की अगुवाई में महादेव के डेहरा योर के मुखौटे  लेकर निशाण,पाउन,रणसिंग,बांसुरी के राग के साथ जुलूस की शक्ल में यौरा लेकर क्वाल्पी करने जाते हैं. वहां से ठाकुर के घर पहुँचते हैं. उसके बाद राश का चक्कर लगा कर फिर सुरगी खेलते हैं.ठाकुर परिवार के पूर्वजों की सूचि लेकर यौरा चढाते हैं.यानी पितरों को अर्पण .यहाँ तीन मुखौटे होते हैं. मृकुला मंदिर के पुजारी की मौजूदगी में ठाकुर अपने पुश्तैनी मकान के बालकोनी में आकर बैठ जाता है. नाच गान का जलसा दिन भर होता है.दूर-दूर से आने वाले लोग व्यआर (त्रिलोकीनाथ ) को यौरा चढाने के बाद ठाकुर को यौरा देने जाते हैं. दोपहर बाद हिंसा गाँव से  नाग का गुर, झोलिंग बुहारी का गुर, मृकुला का गुर  देव आवेश में उभरते हैं व भेड़ की बलि दी जाती है.व्यआर के गुर की अगुवाई में लमशेंई (शेणीनृत्य की लम्बी श्रंखला ) डालते हैं . इस शेणी में सभी शामिल होते हैं व व्यआर का चक्कर लगाते हैं इस शेणी की श्रंखला मंदिर से लेकर गाँव  के मुख्यद्वार तक होती है .महिलाएं पुग (जो के भुने हुए दाने) बरसाती हैं .देर रात ठाकुर के घर नेस्वांई (हालनुमा कमरा ) में व्यआर का गुर  ठाकुरों के कुल देवता वीर को प्रसन्न करने के लिए भेड़ की बलि देता है. अंतिम दिन  सफ़ेद कपडे पहने मुखौटाधारी को ग्रामीण  सामूहिक तौर पर बर्फ के गोले मार कर भागते हैं .साथ सूरजणी जम कर अश्लील वचन का प्रयोग करते हैं.बताया जाता है कि कुछ अरसे के लिए ग्रामीणों ने योर का आयोजन बंद कर दिया था, उस समय त्रिलोकनाथ जो कि हिंसा व किशोरी गाँव के बीच स्थित है में जंगल से सेंकडों कौवों का झुण्ड आकर सिर्फ त्रिलोकनाथ  के ग्रामीणों के खेतों में फसल को बर्बाद कर लौट जाता था. ठाकुर परिवार ने नब्बे के दशक में आयोजन को फिर से आरम्भ करवा दिया .       
आठवां आयोजन मायाड घाटी के उडगोस गाँव में होता है. उडगोस योर मयाड के शक्तिशाली  लोकदेवता नागराजा को समर्पित है तथा नागराजा के प्रांगण में ही योर का आयोजन होता है. फसलों से जुड़े स्वांग के साथ सम्भोग व प्रसव का अभिनय इस योर में प्रमुखता से होता है. उडगोस योर के बारे में मान्यता है कि इसमें  भाग लेने वाले निसंतान दम्पति को अवश्य ही संतान की प्राप्ति होती है. 
नौवा योर लाहुल के एक अन्य महत्वपूर्ण साँस्कृतिक केंद्र मडग्रां गाँव में आयोजित होता है. मडग्रां के उप ग्राम चारु में नाग देवता के प्रांगण (स्थानीय बोली में  कुम्भ या स:वा) में योर खेला जाता है. बर्फ का राश बनाया जाता है. इस गाँव का भोमता परिवार नाग का पुजारी है.योर के दौरान मडग्रां के ठाकुर परिवारों के पूर्वजों के वंशावली की सूचियाँ लेकर शुर (जुनिपर की हरी पतियाँ, लाहुल में देव कार्यों में इसी का इस्तेमाल होता है ),  यौरा (अँधेरे में उगाए जो या अन्न के पीले रंग के छोटे-छोटे पौधे)अर्पित करते हैं, ताकि पित्तरों तक अर्पण ठीक पहुंचे.

 बंदिशों व विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते सभी योर एक साथ एक वर्ष में देख पाना संभव नहीं होता है. कुछ वर्ष पूर्व अनाड़ी हाथ में वीडियो कैमरा आया तो कारदंग योर शूट कर दिया, इसलिए कारदंग योर का आखों देखा हाल लिख रहा हूँ.






                                     कारदंग योर में मंगस-आलचा 

गाहर हालडा के 11 दिन बाद कारदंग में अवा बग (नर), अमा बग (मादा) को गाँव के एक मकान के छत से शाम ढलते ही निकाला जाता है. मुखौटों को निकाले जाने को मंगस-आलचा कहते हैं. इन मुखौटों को धारण करने वाले परिवार पुश्त-दर-पुश्त परम्परा का निर्वाहन कर रहे है. अवा व अमा बग को धारण करने वाले दो परिवार है. मुखौटों को पुरुष धारण करते है. मुखौटा धारण करने वाले पुरुष परम्परागत पोशाक छुबा पहनते हैं. छुबा के बाहर ल्हाग्पा (भेड़ की खाल) को लपेट लेते हैं. मुखौटों के साथ (दो-दो) मेमने की सूखी हुई दायीं भुजा व छोटी कुल्हाड़ी  रखी जाती है. मुखौटों को अपने सामने रख कर पूजा करते हैं. उसके बाद मुखौटों को धारण कर सिर में नकली बाल (संभवता काले याक का पूंछ) लगते हैं. दोनों मुखौटाधारी मेमने की भुजा व कुल्हाड़ी हाथ में लेकर ढोल के मद्दम थाप पर उस छत का सात चक्कर लगते हैं. उसके बाद मुखौटा पहने नज़दीक के कमरे में जाते हैं.




                                                 अवा-अमा बग




जहाँ सात चौरो छुबा पहन कर चेहरे पर नकाब लगाते हैं.नकाब के साथ मस्तक पर लकड़ी जुडा होता है जो क्रास आकृति जैसी लगती है. इस लकड़ी पर एक घुंगरू जैसी घंटी बंधी होती है. चौरो के तैयार होते ही अवा बग उनका प्रतिनिधित्व करते हुए उसी थाप पर कमरे के सात चक्कर लगाते हैं. अमा बग सबसे पीछे चलती है.इस बीच कोई आवाज़ लगाता है कि नौ मंजिल मकान में आग लग गयी है. लकड़ी छोटे-छोटे टुकड़े चिन कर मकान जैसा बनाया जाता है, फिर उसे आग के हवाले कर दिया जाता है.


  

    सांकेतिक नौ मंजिल भवन को जलाने का दृश्य 





उसके बाद नौ लोगों का समूह गाँव के सवा में प्रवेश करते हैं, नगाड़े के साथ व शुर को जला कर स्वागत होता है. नगाड़े पर ढोल वाला ताल बजता है और चौरो एक दूसरे का हाथ थाम कर (एंटी क्लाक वाइस) चक्कर लगाते है.सबसे आगे अवा बग तथा आखिर में अमा बग होती है. छत की मुंडेर व सवा में मौजूद महिलाएं व बच्चे अवा बग व अमा बग को खेप-खेप कह कर चिढाते हैं. अवा बग गंभीर मुद्रा में ही रहता है व कम चिढ़ता है, लेकिन अमा बग चंचलता प्रदर्शित करती है, खेप-खेप कहने वालों को खूब दौड़ाती है. इस बीच दोनों मुखौटाधारी गाँव के पूर्व में जा कर तंग्जेर देवता की अर्चना करते हैं व पश्चिम में गंडाड़ को पूजते हैं. दोनों फिर अलग-अलग जा कर अर्चना करते है व वापसी में मेमने की भुजा व कुल्हाड़ी पर बर्फ का टुकड़ा लेकर सवा के बीच में फेंकते हैं. पूरे गाँव से थाल में शुर के हरे पत्तों के ऊपर मूर (मक्खन से बनी चपटे व गोल सिक्काकार आकृति) के बीच मार केनचि ( मक्खन का बकरा) बना कर लाते हैं. हर थाल में फोची एक ही होता है जबकि सिक्काकार आकृतियों की संख्या कम या अधिक होती है (संभवता खेतों में पानी के पारंपरिक हक़ के मुताबिक) इस भोग को मुखौटा पहने अवा व अमा बग की मौजूदगी में लोक देवताओं को अर्पित किया जाता है. इसी के साथ पहली रात का आयोजन संपन्न हो जाता है.







                      चौरो या शमारची 






                      मूर और मार केनचि 




दूसरी रात मुखौटों को धारण करने से पूर्व सफ़ेद रंग से मुखौटों को सवांरा जाता है. चौरो नकाब उतार देते हैं, नकाब के बजाय सिर पर सफ़ेद कपडा पगड़ी की तरह लपेट लेते है. मुखौटों को धारण करने के बाद ग्रेक्स (योर से जुडा गीत) की शुरुआत होती है. हई लला...हई नती.. इस गीत के बोल हैं. गायन में गाँव के अन्य पुरुष भी शामिल होते हैं, लगभग एक से डेढ़ घंटे तक गायन होता है. गाते-गाते ही सवा में प्रवेश करते हैं. फिर पहली रात की तरह छेड़ने का सिलसिला शुरू होता है. अमा बग अपने नाज-नखरों से लोगों का खूब मनोरंजन कराती है. बर्फ के टुकड़े लेकर अवा बग अमा बग को आकर्षित करता है. मान-मनुहार के दो-तीन चेष्टाओं के बाद अवा व अमा बग संभोग (सांकेतिक) करते हैं.






                अवा व अमा बग छंग की चुस्की लेते हुए 






                        सफेद रंग से बग को सवांरता ग्रामीण






पीतल की बांसुरी, दोलम, झांझे बजते हैं. अलग-अलग राग के साथ गीत के स्वर भी तेज होते हैं. शेणी नृत्य आरम्भ होता है.नृत्य में अन्य ग्रामीण शामिल नहीं होते. अवा बग की अगुवाई में धीरे-धीरे नौ लोग थिरकते हैं. सभी गंभीरता से नृत्य में जुटते हैं, लेकिन अमा बग के नाचने का अंदाज़ शेणी के चेन में जुड़ने के बाबजूद मस्ती भरा व अलग होता है. खूब नृत्य के बाद आयोजन संपन्न हो जाता है.मुखौटों को फिर से उसी स्थान पर एक साल के लिए बंद कर दिया जाता है. इस योर में कोई भविष्यवाणी नहीं होती, न ही कृषि कार्यों को नृत्य में दर्शाते है.






                           ग्रेक्स का गायन करते ग्रामीण 






                                            शेणी नृत्य करते चौरो






गाहर के ही सतिंगरी, क्योर, मंगवन के ग्रामीण हालडा के सात दिन बाद परम्परागत तीरंदाजी का आयोजन करते हैं जिसे ज्ञुमपल्ची कहते है. सतिंगरी में देवता तंग्जेर को समर्पित आयोजन में ग्रामीण देवता के पुजारी के घर में जुटते हैं. मान्यता है कि गाहर बेली का आराध्य तंग्जेर तोद बेली के खंग्सर गाँव से सतिंगरी आया. कहा जाता है कि उस दौर में देवता नर बलि लेता था व देवता से ग्रामीण त्रस्त थे. ग्रामीणों को किसी महात्मा ने देवता से निजात दिलाते हुए भागा नदी में फेंक दिया. बहते हुए देवता सतिंगरी गाँव के समीप नदी में अटक गया. ग्रामीणों ने नर बलि न लेने के वचन के साथ उसे नदी से बाहर निकाला. कुछ अवधि सतिंगरी रहने के बाद देवता ने नदी पार पयूकर गाँव में बसने की इच्छा जाहिर की, उस के बाद वे पयूकर में ही बस गए, लेकिन सतिंगरी में देवता का थान (मूल स्थान) व उनका एक पुजारी परिवार अब भी है.






                                      ज्ञुमपल्ची में जुटे पुजारी 






                                           तैयार हुए आटे की आकृति 






                                                            तीर- कमान 




ज्ञुमपल्ची के दिन पुजारी परिवार तंग्जेर की शुर, फूल, अरग (शराब) पूजा करते हैं. दोलम के राग से साथ देवता का सम्मान होता है. तीन सेट तीर-कमान निकाले जाते हैं. उसकी भी पूजा होती है. अरग व छंग पुजारियों को परोसा जाता है. परात में  आटे की कुछ आकृतियाँ बनाते हैं. जिसे शुर के उपर रखा जाता है. रस्मो की अदायगी के बाद चूल्हे  में शुर डाल कर तीरंदाजी के लिए घर से बाहर निकलते हैं. आटे की आकृतियों को शुर के साथ बर्फ के उपर रख दिया जाता है. तीरंदाजी की शुरुआत करते हुए पुजारी परिवार के तीन सदस्य आकृति पर निशाना साधते हैं. उसके बाद तीरंदाजी में ग्रामीण भी शामिल होते हैं.






                                                          बज उठा दोलम 






                                                   निशाने की तैयारी 






                                                           शुरू तीरंदाजी






 तीरंदाजी संपन्न होते ही देवता के थान में अरग का भोग चढ़ता है. पुजारी परिवार ग्रेक्स (देव स्तुति का गीत) गाते है व शेणी नृत्य पर धीरे-धीरे थिरकते हैं. उसी दिन शाम को ग्रामीण इकट्ठे होते हैं तथा देवता को आमंत्रित करते हुए कई ग्रेक्स का गायन करते हैं. अरग व सामूहिक भोज के साथ आयोजन संपन्न होता है. गाहर के अधिकांश गांवों में तीरंदाजी का चलन  है.गुस्क्यर गाँव में  तीरंदाजी संपन्न होने के बाद आटा, सत्तू व काठु के खमीर की होली खेली जाती है. कपडे ख़राब होने या नाराज होने की कोई परवाह नहीं की जाती है.






                                  देवता का थान.




                                                 ग्रेक्स के साथ शेणी


पटन में खोगल के बाद अमावस्या (इस बार 13 फरवरी ) को कुं या कुंस आता है. कुं से पहले भित्ति चित्रण होता है.राजा बलि को समर्पित बराजा का चित्रण होता है. इस में चित्रित मौटिफ पत्ते, बूटे, बैल, गाय उर्वरता एवम बहुप्रजता के प्रतीक हैं. लिंग पूजा इसी संप्रदाय से संबद्ध है, जो विश्व के प्राचीनतम धर्मो में से एक है. लाहुल में देव कार्यों व उत्सवों में लिंग का प्रतीक सत्तू के टोटु या ब्रंगेस अर्पित करने की परम्परा है. असुरराज बलि वध की घटना को याद करते हुए कुं को बडिदानों तिहार( बलिदान का त्यौहार या बलि दानव का त्यौहार) कहा जाता है.तिंदी क्षेत्र में बलि की हत्या का कुं से पहली रात मातम मनाया जाता है.निश्चित समय तक अन्न-जल ग्रहण न कर मौन धारण करते हैं. पटन का कुं चन्द्रमा के गणना पर आधारित है. अमावस्या के तीन दिन पहले ही कुं की तैयारी शुरू होती है. पहले दिन गुन त्रेइन में भेड़ की बलि होती है. भेड़ की बलि न देने वाले परिवार चुंग (स्थानीय व्यंजन) बनाते हैं, भेड़ काटने वाले परिवार जूमा (भेड़ की आंत को भर कर बनने  वाला व्यंजन) या मो-मो बनाते हैं. घुनु यानी दूसरे दिन हर घर में मारचु (खमीरीकृत आटे से बनी मोटी पूरियां ), दंज़ा  (फोचे), लर दंज़ा( आटे के कुछ-कुछ पशु स्वरुप आकृति बना कर ग्रहों को शांत करने के लिए घर से बाहर फेंकते हैं.)  बनाये जाते हैं. घर के खिड़की-दरवाज़े पर चावल-दाल (प्राचीन लाहुल में ये साल में एक बार ही बनता था), मन्ना (दक्षिणी भारत के डोसा जैसा), घी का भोग चढ़ाया जाता है. तीसरे दिन कुयाग यानी नौ व्यंजन की रात चावल, दाल, मीट, मन्ना, एठ (पापड़ के तरह कड़क), दही, दूध, घी, सब्जी बनता है,  ग्रामीण लकड़ी फाड़ते है, पानी ला कर रखते हैं व मीट के पीस करते हैं. परिवार के सदस्य रात्रि भोजन जल्दी कर झूठे बर्तन साफ़ कर देते है, मान्यता है कि कुयाग की रात मर्गुल (उदयपुर) से मृकुला देवी मंदिर से वीर (मंदिर के दो द्वारपाल) पैदल सड़क मार्ग से तांदी संगम स्नान करने पहुँचते हैं व 'घंडाड' की देवी से मिलते हैं. मंदिर में वापसी नदी मार्ग से करते हैं. उदयपुर से तांदी तक वीर जहालमा, रुडिंग व ठोलंग में माता के उपासकों के घर पहुँचते हैं. कुयाग की रात ठोलंग व रुडिंग में उनके उपासक घर के छत पर वीरों की आव-भगत के लिए दो जोड़ी पुला (घास की बनी स्थानीय जूती), हुक्का भर कर आज भी रखते हैं. कुछ परिवारों के लोग पूरी रात जागते हैं. इसी दिन कुछ परिवार अपने आराध्य 'भूत' को रात्रि भोजन व धून (शुर का धुआं) देते हैं. घर के छत या आँगन में बर्फ के राश ( बर्फ का शंकु) बनाते हैं. राश के स्थापित होते ही लकड़ी फाड़ना, पानी लाना, मीट काटना वर्जित हो जाता है. तीसरे दिन कुं आरम्भ होता है, प्रात: पौ फटने से पहले राश के शागुण (पूजा) को रिंग क्वाल्पी कहते है तथा इस अवधि को कुं सिल कहते हैं. गृह स्वामी व स्वामिनी पारंपरिक वेश-भूषा में हालडा जला कर, यौरा की टोकरी, शुर, लक्शा (भेड़ की दाहिनी भुजा), तलवार लेकर राश की पूजा करते हैं. राश की पूजा करते हुए सृष्टि के तमाम देवी-देवताओं का स्मरण कर चारों दिशा में यौरा-शुर अर्पित करते हैं. पूजा के बाद हर दरवाजे पर यौरा की तीन गुछियाँ, घी के साथ लगा कर सुख-समृधि की कामना करते हैं. इस प्रक्रिया के बाद घर में प्रवेश करते ही कुं शुरू होने की औपचारिक घोषणा दरवाज़े से आवाज मार कर की जाती है. उसके बाद परिवार के सदस्यों के साथ कुं में यौरा व झोलुणु(पारम्परिक कृत्रिम फूल) के साथ एक दूसरे को डहाल (अभिवादन व बधाई) करते हैं. फिर गाँव में नजदीकी रिश्तेदारों के पास यौरा के साथ बधाई देने जाते है, उसके बाद गाँव के हर घर में बारी-बारी पहुँचते है, मॉस,मदिरा व व्यंजनों के साथ मेहमानों का स्वागत होता है. चौथे दिन पुना के दिन सुबह होड़ होती है महिलाओं में नल से पानी भरने की, गुनु के दिन बनाये  दंज़ा, मारचु. शुर, घी के साथ पानी, विशेषकर नाग की की पूजा होती है. जिन गाँव में लुहार परिवार हैं, उन गाँव में तमाम ग्रामीण सरा (शराब) सहित व्यंजन लेकर उनके घर जाते हैं. बदले में लुहार सुई, चिमटा या लोहे का अन्य सामान देता है तथा लुहार आटे के पशु बना कर खेत में हल चलाने का स्वांग करके दिखाता है. पांचवें दिन पुनाडा या मेहमाननवाजी का दौर शुरू हो जाता है. ग्रामीण पूरे गाँव को बारी-बारी अपने घर में आमंत्रित करके खातिरदारी करते हैं.
तिंदी क्षेत्र में कुं को सिल कहते हैं. हालडा व सिल पटन के साथ ही मनाते हैं हालडा के सात दिन बाद इस क्षेत्र में शामली मनाया जाता है, इस दिन गूर (देवी या देवता का चुना हुआ प्रतिनिधि) काँटों के ढेर पर बैठ कर फसल, मौसम सहित कई भविष्यवाणी करता है.इस क्षेत्र में सिल के दिन राजा बलि को सम्मान देने के लिए कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जाता जिससे राजा बलि का अपमान हो. ग्रामीणों की मान्यता है कि 24 घंटे के लिए सिल के दिन पृथ्वी का शासन राजा बलि के पास होता है, ग्रामीण पूरी मस्ती के साथ विभिन्न व्यंजन व मदिरा का पान करते हैं तथा एक दुसरे के घर यौरा देने जाते हैं, इस प्रक्रिया को जुकारु  कहा जाता है.
मयाड में पूरे दीवार पर चित्रण किया जाता है व लगभग हर जानवर इस चित्रण का हिस्सा होता है. पुना के दिन ग्रामीण यौरा की टोकरी, मारचु, अरग लेकर खेतों का कतार में चक्कर लगाते है उसके बाद घर आकर घर के छत पर बनाये राश की पूजा-अर्चना करते हैं फिर पीने-पिलाने का दौर शुरू हो जाता है.

# इस पोस्ट के लिए मिले सहयोग के लिए आभार. श्री अजेय सुमनम. श्री शेर सिंह गोहरमा, श्री सोनम छेरिंग गुस्कियर, श्री ध्यान सिंह कैन (तिंदी),श्रीमती मूरुब अंग्मो मूलिंग, श्री जयराम ठाकुर हिंसा, श्री अजीत रूबलिंग