Monday, April 12, 2010

नौ साल बाद सैंज


डोडा विहाल 'नकली' गाँव!! 






मित्र ने शनिवार 10 अप्रैल को फोन किया। मोच आ गई है। क्या तुम बतौर ड्राईवर सैंज चल सकते हो? मैंने कहा ठीक है। इस वार्तालाप को मेरी पत्नी ने सुना। कहने लगी मैं भी चलूंगी। मैंने कह दिया ठीक है। रविवार को फिर फोन आए तो चलेंगे। पत्नी सुबह जल्दी ही तैयार हो गई। मैं बेपरवाह सोता रहा। फोन आ ही गया कि क्या तुम तैयार हो क्या? मैंने कहा आ जाओ, तुरंत तैयार हो जाऊंगा। मित्र के मारुति में सवार हुए हम और चल पड़े सैंज। नौ माह की बेटी साथ लेकर। इस बीच खोखण में भी उसे कुछ काम था। काम निपटा कर शुरू हुआ सैंज का सफर। लारजी के ट्रेफिक टनल पार कर मुड़ गए सैंज की ओर। करीबन नौ साल बाद सैंज जा रहा था। जब पहली बार गया था तो सड़कें तंग थी। अब एकदम नजारा बदल चुका है। कच्ची सड़क पर धूल उड़ाते डंपर, टिप्पर। धूल ही धूल। सड़क किनारे पेड़ों पर धूल की मोटी परत। धूल-धूसरित इलाका। धूल नियंत्रण के लिए परियोजना का पानी टैंकर। पर सब बेकार। तपती धूप में टैंकर से पानी की बौछार। रस्मअदायगी से अधिक कुछ नहीं। मित्र बोल उठा बरसात में कीचड़ और गर्मी में धूल। सब बेपरवाह काम जोरों पर है। बाईपास, पुल, सुरंग, मलबे से सिकुड़ी सैंज नदी। विकास हो रहा है। महत्वाकांक्षी बिजली परियोजना का काम है।

परियोजना की नवनिर्मित सुंदर बस्तियां। कच्चे मकान पक्के हो चुके हैं। सड़कों के किनारे भवन निर्माण जारी है। परियोजना से भला हो गया ग्रामीणों का भी। सड़कों का जाल बिछ रहा है। सड़कों के लिए कितने पेड़ कटे होंगे? अहसास हो गया। बदला हुआ सैंज घाटी। नौ साल बाद अलग ही सैंज जा रहा था। हल्की से चढ़ाई में हांफते ओवर लोडिड ट्रक। मलबे से भरे टिप्पर। मशीनों का ढेर। निर्माण कार्यों ने पहाड़ का 'तेल' निकाल दिया। यही देखते हुए चल रहा था। उत्सुकता हुई सैंज कस्बे का बाजार कैसा होगा? 
शलवाड़ पहुंच गए। काम जोरो पर है। सुरंग बन रही है। सड़क से सटे इस छोटे से गांव में दुकान बढ़ गए हैं। उड़ते धूल ने गांव की रंगत बिगाड़ दी है। आगे बढ़े। सड़क की निचली और एक गांव हुआ करता था। छानी नाला । 22-25 मकानों वाले इस गांव का नामोनिशान मिट गया। लाखों टन मलबे का ढेर। दब गया है वो गांव। मलबे के ढेर में बदल गया है ढलान पर बसा छानी गांव। डंपिंग साइट के लिए पूरा गांव उजड़ा। मलबे को बिछा कर बन रहा है मैदान। इस गांव के लोग कहां बसे? मेरे लिए यह सवाल ही रहा। हां, इतना जरूर है कि उन्हें पर्याप्त मुआवजा मिला होगा। अपने माटी से अलग होने की कीमत। मलबे के ढेर को बिछाते मशीनों का शोर। शायद उस गांव के बारे में सोचने का मौका नहीं देती।








                                 
मलबे के ढेर में दबा छानी नाला 


इस ढलान पर बसा था छानी नाला गाँव 






सैंज करीब आ रहा है। दिखने लगी है परियोजना की सुंदर, व्यवस्थित बस्ती। सैंज बाजार भी आ गया। कच्चे खोखे सीमेंट के पक्के मकानों में तब्दील हो चुके हैं। कीचड़ व धूल से कस्बे की सड़क खस्ता है। लग्जरी वाहन में घूमते स्थानीय युवा। बदले हुए स्टेटस सिंबल के साथ। कुछ खाने का मन हुआ। बाजार की हालत देख कर केले व संतरे खरीद कर ही संतोष कर लिया। सैंज से आगे जाना था हमें। रास्ते भर होती रही परियोजना व स्थानीय लोगों से जुड़े किस्सों की चर्चा। 
परियोजना के साथ संपन्नता आई। धड़ाधड़ वाहन खरीदे गए। अब वाहन को हांकने के लिए तेल के लायक जुगाड़ नहीं। सुना है कि एक परियोजना के अधिकारी का वाहन टायर पंचर हुआ। परियोजना में मजदूर बोला, 'ठहरो साहब! मैं अपनी गाड़ी ले आता हूं।' पूंजीवाद का धुंधला सा  चेहरा। सैंज घाटी में दिख रहा है। अमीर और अमीर हो रहा है व गरीब की हालत बदतर हो रही है। सैंज से आगे बढ़ते हुए मित्र बोला नदी के पार गांव देख रहे हो? छोटा शिमला! स्ट्रक्चर बने हुए हैं लकड़ी के। मकान जैसे दिखते है। मात्र मुआवजा बटोरने के लिए रातोरात खड़े किए गए हैं। उपर की मंजिल जानवर को फांसने के लिए बिछे जाल से कम नहीं। ऊपर गए तो धड़ाम। सुना है कि परियोजना में मुआवजे का गड़बड़झाला है। 
मेरे लिए हैरतअंगेज था कि मकान भी 'चोरी' हो जाते हैं। इधर, खड़ा किया नहीं और उधर कोई और पूरा का पूरा उड़ा ले गया। उसी मेटेरियल का इस्तेमाल। अपना मकान खड़ा। हल्फनाफे देकर खड़े हो रहे हैं मकान। जमीन किसी की, मकान किसी और का। हल्फनामे के ऐवज में मिल जाता होगा 'कुछ'। पता नहीं, कितना? मकान बनाने वाले को तो मिलने वाली रकम का करना होता है इंतजार। लगता है मकान माफिया खूब बटोर रहा है। हम आगे बढ़ ही रहे हैं। मित्र का कोई इंतजार कर रहा है। 
इस बीच डेम साइट तक पहुंच गए हैं। काम चल रहा है। पोकलेन मशीन, जेसीबी गरज रहे हैं। टिप्परों में मलबा लोड हो रहा है। पहाड़ को बेरहमी से नोच रहे हैं पोकलेन मशीन। कलयुगी 'दैत्य'! डेम साइट के आसपास की पहाड़ी पर सीमेंट की ग्रोटिंग हुई है। नई तकनीक से सीमेंट का छिड़काव। सीमेंट की बौछार पड़ते ही जैसे वनस्पति को बोल दिया हो 'स्टेच्यू'! और वनस्पति सदा के लिए स्टेच्यू। जैसे पौराणिक कथाओं में होता था छूते ही इंसान पत्थर। मुझे लगा उस पहाड़ी की वनस्पति की बेहरहमी से 'हत्या' हुई है। अब वो कोख हमेशा के लिए बंजर हो गई है। डेम के बनते ही पानी में डूबा होगा 'वो' हिस्सा। 
डेम साइट से निकलते ही आगे दो रास्ते थे। एक रास्ता न्यूली जाता है और दूसरा पुल पार कर रैला। जो मुझे नहीं पता था। हम पुल पार कर आखिर पहुंच गए जहां मित्र को जाना था। मित्र बोला सामने गांव देख रहे हो। डोडा बिहाल है। गौर से देखा तो हैरत में था। सुंदर सा दिखने वाला गांव पूरा 'नकली'। 40-50 मकान बन गए हैं। सलीके से रंग-रोगन हुआ है। किसी भी मकान में शीशे नहीं है। कोई नहीं दिख रहा। भरा-पूरा गांव, रहने वाले कोई नहीं। बताया कि यह मुआवजे का खेल है। परियोजना इस स्थल को भी अधिग्रहित कर रही है। मकान बना हो तो मुआवजा अधिक मिलेगा। लकड़ी के मकानों की कीमत ही अलग है। नजदीक से देखा तो इतने बड़े गांव में कुछ लोग दिखे। शायद उस छोटे से गांव के मूल निवासी होंगे। अब गांव का आकार बढ़ गया। 
सब पैसा है। ऐसा ही चलता है। परियोजना के समंदर से बूँद निकल जाए तो किसी को क्या फर्क? और इस सब से मेरे पेट में दर्द क्यों? खैर मित्र को कुछ काम निपटाना था। इतनी देर बैठे रहने का मतलब नहीं था। सो मैंने कहा, 'मैं न्यूली तक जा आता हूं।' मैं कभी न्यूली नहीं गया था। न्यूली से आगे शांघड जैसा खूबसूरत इलाका है। तस्वीरों में देखता रहा हूं। मित्र ने कहा, 'शांघड़ नहीं पहुंच पाओगे। सड़क न्यूली तक ही है।' मैंने कहा' 'कोई बात नहीं मैं न्यूली तक ही जा आऊंगा परिवार के साथ। फिर क्या पता मौका मिले या न मिले।' हामी भरी और चल पड़े न्यूली की ओर। मालूम न था कि किस दिशा में है न्यूली। दो किलोमीटर के बाद किसी से पूछा। न्यूली कितनी दूर है? उसने कहा, 'जनाब आप गलत आ गए है। जिस पुल को पार किया उसी पर वापस जाते हुए दूसरी सड़क पकड़ो। इस सड़क से तो आप रैला पहुंच जाएंगे।'
 इतना आ जाने के बाद लौटने का मूड नहीं हुआ। सोचा चलो रैला ही देख आते हैं। चल पड़े आगे। परियोजना के निर्माण में इतनी सड़के बन चुकी हैं कि पक्का नहीं था कि मैं रैला पहुंच पाऊंगा या नहीं। सड़कों की भूलभुलैया...कोई साइन बोर्ड नहीं! कौन सी सड़क कहां जा रही है? पहाड़ पर सड़क दूर से लकीर जैसी दिखती है। पहाड़ पर खींची लकीरें बता रही हैं कि शिद्दत से पहाड़ का सीना छिला गया है। जंगल साफ हुए, पहाड़ काटे गए। सैंज में परियोजना की कई सुरंगें बन रही हैं। पहाड़ जगह-जगह से छिद रहे हैं। उस सड़क के साथ बिजली की बड़ी लाइन भी जा रही है, लेकिन कहां, पता नहीं! परियोजनाओं के निर्माण के साथ टावर लाइन बिछेगी। तभी तो रोशन होंगे मैदान बड़े-बड़े शहर। पहाड़ में परियोजनाओं का निर्माण गति पकड़ रहा है। एक समय ट्रांसमिशन लाइन के टावरों से पहाड़ पट जाएगा। सच भी है। मैदानी इलाकों में संसाधनों का दोहन हो चुका है। अब पहाड़ की बारी है। क्या विकास ऐसी तबाही लाती है?
 ब्लैक टॉप सड़क पर गाड़ी दौड़ रही है। विकास के उस मंजर से अलग बावडिय़ों में कपड़े धोती महिलाएं, नहाते बच्चे। शायद विकास से अनभिज्ञ या जानकर भी बेबस। नदी-नालों के किनारे बने परंपरागत घराट अतीत की बात हो गई। पहले पिसता था आटा और मेल-मिलाप भी हो जाता था। मेरे पत्रकार मित्र बताते हैं कि इन घराटों में कई जोड़े मिलते थे और गृहस्थी बस जाया करती थी। अब परियोजना के बड़े घराट लगेंगे जो अपनी रगड़ से बिजली पैदा करेंगे। दुर्गम गांवों के मकानों के छत पर डिश एंटिना दिख रहे हैं। मोबाइल के टावर भी। कंपनियों की सुविधा। भला ग्रामीणों का भी। दुर्गम इलाके में परियोजनाओं के बहाने सड़क बन गई है। कभी स्वप्र ही रहा होगा ग्रामीणों के लिए। पैसे की ताकत क्या नहीं कर सकती? अहसास हो रहा है। 
गाड़ी रोक राहगीर से पूछ ही लिया रैला कितना दूर है? बोला, 'आगे दो रास्ते आएंगे आप सीधे जाने की बजाए मुड़ जाएं। रैला सुंदर गांव है व एक मंदिर भी है।' गांव के नजदीक पहुंच तो गया लेकिन देखा सड़क आगे जा रही है। सोचा संभव है सड़क गांव तक ही हो। इस आस बढ़ चला। देखा सड़क गांव के बाहर से निकल रही है। गांव के ठीक ऊपर पहुंच गया। जहां एक वाहन में ग्रामीण रोजमर्रा की वस्तुएं व राशन लाए हैं। सड़क से गांव तक लंबी स्पेन लगी है। स्पेन में लाद कर राशन गांव तक भेजा जा रहा है। रैला हरा-भरा सुंदर व फैला हुआ गांव। नजदीक ही जंगल। राशन वाले एक बुर्जुग से पूछा तो बताया कि सड़क परियोजना की सर्ज शाफ्ट तक है। गांव में अभी सड़क नहीं पहुंची है।
 रैला के इसी स्थान से ही सैंज परियोजना के पावर हाउस में पानी गिराया जाएगा। कहने का तात्पर्य डेम साइट के ठीक ऊपर है रैला। गांव के नीचे से भूमिगत सर्ज शाफ्ट की सुरंग बन चुकी है। भूमिगत सुरंग ने गांव में पानी के स्रोतों को सोख लिया है। सुरंग के बनने के बाद गांव में पानी की किल्लत हो गई है। प्राकृतिक स्रोत सूख रहें हैं। अब पेयजल लिफ्ट किया जा रहा है। गांव के बीचों बीच भव्य स्थानीय शैली का भवन दिखा। पूछा तो पता चला लक्ष्मी नारायण का मंदिर। गांव में एक हाई स्कूल है। कुछ देर रूक कर आसपास का नजारा लेता रहा। उस ऊंचाई पर खड़ा था जहां से दिख रही थी सामने की हरी-भरी पहाडिय़ां व वहां बसे गांव। घने जंगल, लहलाते खेत बागीचे, बर्फ से लदे पहाड़। नजरें दूर-दूर तक जा रही थी। अद्भुत था नजारा। अहसास ही नहीं होता कि नीचे पहाड़ का सत्यानाश हो हो रहा है। विकास की कीमत तो चुकानी पड़ेगी। रैला से सुकून देने वाले पहाड़ देख कर लगा कि मैं कोई भयानक स्वप्र देखकर जागा हूं। पहाड़ की तबाही मेरे भ्रम से अधिक कुछ नहीं। 
नजारा देख कर लगा पहाड़ बेखबर हैं कि उसके शरीर के कुछ हिस्सों को बेदर्दी से छिला गया है। मशीनों से नोचा जा रहा है। कई छेद हो गए हैं। फोन की घंटी बजी। मित्र ने कहा, 'काम निपट चुका है।' परियोजना के सर्ज शाफ्ट तक नहीं पहुंच सका। तुरंत वापस चल पड़ा। मित्र न्यूली रोड पर इंतजार कर रहा था। उसे लगा कि मैं न्यूली से लौट रहा हूं। उसे पिक करने के बाद फिर से उसी भयानक दुनिया में लौट आया। सुबह आए थे नाश्ता करके, वापसी करते हुए डेढ़ बज गए। भूख लगने लगी। मित्र ने कहा कि सैंज से निकलकर औट के आसपास भोजन कर लेते हैं। धूला हुआ वाहन सैंज के लगभग 40 किलोमीटर उबड़ खाबड़ सड़क पर दौडऩे के बाद धूल से सन गया था। 






                                                   लारजी डेम 

मारूति लारजी ट्रेफिक टनल के बाद सांय-सांय दौड़ रही थी। पत्नी बोल उठी, 'अब लग रहा है कि पैदल चल रहे हैं।' औट से कुल्लू की तरफ सुंदर से रेस्टोरेंट में रूके। नदी के किनारे बने रेस्टोरेंट में जम गए। भोजन का आर्डर दे दिया। बीयर की चुस्कियां भी ले ली। घर पहुंचे। सफर की थकान मिटा ली। फोन उठाकर केलंग अजेय भाई से बात की। मैंने उन्हें बताया कि अभी-अभी सैंज का दौरा करके आया हूं पूरे नौ साल बाद। उन्होंने पूछा' 'क्या देखा?' तो मैंने कहा, 'मानों एक दुस्वप्र में से बचा कर खुद को बाहर निकाल लाया हूं। क्या लाहुल भी एक दिन सैंज बन जाएगा?' परियोजनाओं से कुल्लू की गत बना दी है। क्या अब लाहुल की बारी है? रोहतांग टनल, पाइप लाइन में दर्जनों जल विद्युत परियोजनाएं, प्रस्तावित रेल लाइन...आज जो लाहुल है वो ऐसा रह पाएगा? इन चर्चाओं के बाद वह बोले अजय तुमने मेरी 'रोहतांग टनल' कविता पढ़ी है....'पहाड़, क्या तुम छिद जाओगे?'  

16 comments:

Jandunia said...

भई तस्वीरों ने दिल को छू लिया

Anonymous said...

R.k. Telangba :आप का ब्लॉग बहुत ही शानदार लगा मुझे. आपने बड़े ही सरीखे से सेंज घाटी में हो रहे विकास और तबाही का मिश्रित तस्वीर प्रस्तुत किया. आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति का चीरहरण . विकास और विनाश का खेल . मशीनों की बेरहमी और आंसू बहते पहाड़. पेड़ों का कत्लेआम और सूख रहे झरने... शायद यही सब इस प्रकार की मह्त्वकांशी परियोजनाएं अपने पीछे विरासत के तौर पर छोड़ जा... See Moreती है. विकास की अंधी दौड़ में सिसकती प्रकृति... शायद इस दर्द को कोई महसूस नहीं कर पायेगा... .. आप के ब्लॉग में सब कुछ स्पष्ट है सिर्फ एक चीज़ अंत तक सस्पेंस बनाये रखती है... वों है आप का मित्र . आपने अपने मित्र के बारे में ज़िक्र ही नहीं किया की वों कौन था जिनकी बजह से आप के ब्लॉग का जन्म हुआ ... लेकिन पूरा ब्लॉग पढने के बाद आप के मित्र का किरदार एक अतिथि (GUEST ROLE) का मालूम पड़ता है......

Amitraghat said...

इस मर्मस्पर्शी पोस्ट पर क्या लिखें जबकि सेंज में कुछ बचा ही नहीं..यहाँ मध्य प्रदेश में भी ऐसा हुआ था हरसूद में यह एक शहर था बड़े बाँध का शिकार हो गया...."

Vinod Dogra said...

मुआवजे का खेल आंखे खोल देने वाला है...इस बारे सुना तो था...पर जो पढा वो हिला के रख देता है....बेरहमी से लिखा है...शुभकामनाऐं.

harcues said...

good job ajay! thanks for sensitization. hope that it ll never happen in lahoul!!

Anonymous said...

Suresh Vidyarthi हमारा पहाड नही बल्कि हमारा सीना छलनी हो रहा है ! और हर वो संवेदना विकासवादी मलवे के नीचे दब गई है, जो कभी सीना ताने मैदानो से आने वाली हवा झेलती थी !!!

Anonymous said...

Rahul Thakur: Ajay ji.....commendable job through blog...language is effective...emtotions are reflected for the sake of nature....though the location chosen by you is "SAINJ"but in large what you are figuring out is a issue of concern i.e."Turmoil of nature by humans for selfish motives in the name of progress".This what we can say 'progress with destruction’.

Anonymous said...

Padma Thinley: Ajay ley,you have an eye for details.Kudos.Wonderful piece.
However it amazes me that the persona of the level of Patkar,Bahuguna,Roy could not stop Narmada or Tehri.Is this symptomatic of the might of system or what else...?

अजेय said...

sundar bhasha ..... jiyo chhote bhai!

अजेय said...

# amitraghat, himachal me chhote chhote kitane harsood aur tihri har saal doob jate hain....lekin yahan pratirodh ki sanskriti bani nahi hai abhi.... vaise *nazar* aane laga hai logon ko ab....

Rati Saxena said...

ऐसा ही मैंने नार्थ ईस्ट की यात्रा के वक्त भी देखा था..मेरे यात्रा वृत्तान्त की कुछ पंक्तियाँ..

शिलाग के पहाड़ अन्य जगह के पहाड़ों से बेहद अलग हैं। यहाँ पहाड़ चट्टानो से बने थे, पर यह देख कर बेहद दुख हुआ कि पहाड़ों को काट काटकर पत्थर निकाले जा रहे हैं, ये पत्थर मैदानी इलाकों में इमारते बनाने के काम आते होंगे। कई पहाड़ों को तो चारो तरफ से इस तरह से काट दिया गया है, मानों किसी ने केक को चारों तरह से कुतर लिया हो। एक आध जगहतो पहाड़ पूरी तरह सफाचट थे।
कितना खाएगा आदमी? सब कुछ तो खाता जा रहा है, वन, उपवन, नदी तालाब और अब पहाड़ तक...आदमी जिस तेजी से प्रकृति का दोहन कर रहा है, उस तेजी से प्रकृति उसे कुछ दे नहीं सकती। एक पहाड़ को बनने मे सदियाँ लगती होंगी, किन्तु उसी पहाड़ को उखाड़ने बरस दो बरस काफी है।
शीलांग का हिस्सा कोयले की खदानों के लिए भी मशहूर है, थोड़ी थोड़ी दूर पर पहाड़ों के नीचे छुपी खदानों के द्वार दिखाई देते हैं। बताया गया कि अनेक छोटी छोटी खदाने तो बन्द हो चुकी हैं। कहा जाता है कि ज्यादातर स्त्रियाँ ही इन खदानों की मालकिन हैं। आजकल सारा ध्यान पत्थरों की खुदाई की ओर चला गया है।

Rati Saxena said...

and more in Sikkim..
सिक्किम के ज्यादातर क्षेत्रों में पहाड़ों का बिखरन साफ दिखाई दे रहा था। सड़कों पर कई जगह पर मिट्टी का ढेर दिखाई पड़ रहा था। सूरज बताने लगा कि यहाँ के पहाड़ कच्चे होते हैं, मेरा दादा बताता है कि पहले दार्जीलिंग के पहाड़ भी कच्चे थे। किन्तु अंग्रेजों ने चाय के बगान लगाए तो चाय के पौधों की जड़ों ने मिट्टी बाँध कर रख ली।

मैं सोच रही थी कि यदि मिट्टी का बिखरन रोकने का स्थाई प्रबन्ध नहीं किया गया तो हम कितने पहाड़ों से हाथ धो सकते हैं। पहाड़ों का इस तरह दम तोड़ना कितना भयानक होगा, यह सोचना भी कठिन है।
....

आस पास का नजारा खूबसूरत तो था, लगातार खिरते रहने के कारण पहाड़ों पर जगह जगह रेत, पत्थर दिखाई देते हैं, ऐसे लगता है कि पहाड़ों को खाज हो गई हो, खुजा खुजा कर माँस छिल आया हो। न जाने कब सरकार इस और बड़ा कदम उठाएगी, कहीं ऐसा ना हो कि पहाड़ खिरते खिरते मैदान बन जाएँ, और पहाड़ों की गोद में बैठी अनेक संस्कृतियाँ संमृतियाँ मात्र बन जाएँ।
( अगामी पुस्तक..चींटी के पर)

baddimag said...

bahut achche ajay bhai...lage raho...sarkar ki na sahi logon ki ankhen to khuleagi..badhai

सुशीला पुरी said...

आपकी सवेदना मे शामिल हूँ मै सेंज के प्रति ....
चित्रों न तो व्यथित कर दिया ।

chhojor said...

Constitution tell,"By the people,For the people and of the people.
In such situation we will have to say.
For the somebody,of the somebody and by the somebody.
Kindly excuse me for the sequence.

मुनीश ( munish ) said...

very disturbing report ! thnx anyway . do write more.