स्पीति यात्रा के दौरान लाहुल-स्पीति के विधायक डा. रामलाल मार्कण्डा के साथ किब्बर व शेगो गांव में जाना हुआ। एक ही दिन दोनों गांवों में पिंगरी का आयोजन था। मुंडन की परंपरा को स्पीति में पिंगरी कहा जाता है। अक्टूबर माह से स्पीति में नवजातों के पिंगरी का दौर चलता है। पहली मर्तबा पिंगरी में जाने का अवसर मिला। 15 नवंबर को लाहुल के जाहलमा से चले। लंबी यात्रा करते हुए कुंजोम दर्रा पार कर लोसर सर्किट हाउस पहुंचे। पूरे स्पीति से विधायक को रिसीव करने कार्यकर्ताओं पहुंचे थे। पिंगरी अटैंड करने किब्बर की और चल पड़े। वाहनों का लंबा काफिला था। देर शाम किब्बर में निर्धारित घर पहुंचे तो विधायक का स्वागत हुआ। दूर दराज से रिश्तेदारों का आना जाना चला हुआ था। मेरे लिए स्पीति में ऐसे आयोजन का नया अनुभव था। भोज के उपरांत कुछ देर उसी घर में गीत-संगीत का कार्यक्रम चलता रहा। थोड़ी ही देर में परंपरागत अंदाज में बजंतरी मेहमानों को छंका हाल (सामुदायिक भवन) में आमंत्रित करने पहुंचे। वाद्ययंत्रों की गूंज के साथ छंका हाल पहुंचे।
बहुत बड़े हाल में सैंकड़ों लोगों की मौजूदगी मेरे लिए हैरत का ही सबब बना। पारंपरिक परिधानों व आभूषणों में सजे लोग, मदिरा व व्यंजनों का दौर। शून्य से नीचे तापमान में लोग खूब गर्म कपड़ों के साथ डटे हुए थे। तीन दिन तक चलने वाले इस आयोजन की भव्यता कौतुहल जगा रही थी। स्पीति में ज्येष्ठ पुत्र, ज्येष्ठ पुत्री सहित छोटे बेटे जिसे लामा कहा जाता है के मुंडन का आयोजन किया जाता है। स्पीति में बड़े बेटे को पैतृक संपत्ति का अधिकार है व छोटे बेटों को भिक्षु बना दिया जाता है, यही कारण है कि भले ही वह भिक्षु बने या न बने उसे लामा ही कहा जाता है।
पिंगरी के लिए बकायदा शुभ दिन का चयन होता है। तीन दिवसीय इस आयोजन के पहले दिन को छिंगफुद, दूसरे दिन पिंगरी मोला तथा तीसरे दिन को छंगलग कहा जाता है। छिंगफुद में ग्रामीण एकत्रित होते हैं व पिंगरी की तैयारियां की जाती है। पिंगरी मोला के दिन ग्राम देवता गुर के माध्यम से आवेशित होते हैं व नवजात व आयोजन के संदर्भ में भविष्यवाणी करते हैं। दूर-दूर से रिश्तेदार पहुंचते हैं। बौद्ध धर्म समर्पित क्षेत्र में लोकदेवता की मान्यता से चौंका जरूर, लेकिन प्रक्रिया नहीं देख पाया।
नवजात के मंगलमय भविष्य के लिए बौद्ध परंपरा के अनुसार पूजा व प्रार्थना होती है। माइक लगा कर कर छंका हाल के शोरगुल के बीच एनाउंसमेंट होती है। लाहुल में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को सामाजिक आयोजनों में जुटते नहीं देखा था। साथ ही मुंडन की रस्म ज्येष्ठ पुत्र के लिए ही अदा की जाती है। बताया जाता है कि इस भव्य आयोजन का खर्च भी अधिक है व उसी अनुपात में नवजात को तोहफे नकद दिए जाते हैं। किब्बर के पिंगरी के बाद शेगो के लिए चल पड़े। शेगो पहुंच कर सर्वप्रथम स्वागत हुआ और भोज में मो मो दिए गए।
वेजिटेरियन व नॉन वेजिटेरियन लोगों के हिसाब से मो मो बने थे। भोज के बाद आयोजन स्थल पर पहुंचे। यहां छंका हाल के बजाए विशाल पंडाल लगा हुआ था। पूछने पर पता चला कि छंका हाल गांव से कुछ हट कर बना है, इसलिए पंडाल लगा है। प्लास्टिक के शीट से पंडाल को चारो तरफ से ढक़ दिया गया था ताकि ठंडी हवा व कम तापमान से मेहमानों को परेशानी न हो। साथ ही हीटिंग के लिए मदिरा का प्रबंध तो था ही।
परंपरागत पोशाकों में सजी महिलाओं ने मंगल नृत्य किया। परंपरा के अनुरूप मंगल गीत गाए गए। नवजात के रिश्तेदार नृत्य के नर्तकों को क्षमता के अनुसार रूपये देते हैं। सामूहिक गायन व नृत्य के दौर के बाद देर रात शेगो से काजा की और चल पड़े।
हालांकि पिंगरी की पूरी रस्म नहीं देख पाया किंतु परंपरा व संस्कृति से जुड़ा भव्य आयोजन मेरे जहन में बस गया। संभव ही नहीं था कि पहली बार अधूरे आयोजन को देख कर पूरी प्रक्रिया को समझा जा सके।
अफसोस इस बात का है कि मैं इस आयोजन को कैमरे में कैद नहीं कर सका। इस वर्ष 17 जू
न को हुए मेरी बेटी जिगमेद कुंसिल के मुंडन संस्कार के फोटो अपलोड कर पोस्ट में रंग भरने का प्रयास कर रहा हूँ.